सितम्बर दूसरा सप्ताह

8 सितम्बर/जन्म-दिवस

उदासीन सम्प्रदाय के प्रवर्तक बाबा श्रीचंद

हिन्दू धर्म एक खुला धर्म है। इसमें हजारों मत, पंथ और सम्प्रदाय हैं। इस कारण समय-समय पर अनेक नये पंथ और सम्प्रदायों का उदय हुआ है। ये सब मिलकर हिन्दू धर्म की बहुआयामी धारा को सबल बनाते हैं। उदासीन सम्प्रदाय भी ऐसा ही एक मत है। इसके प्रवर्तक बाबा श्रीचंद सिख पंथ के प्रवर्तक गुरु नानकदेव के बड़े पुत्र थे। उनका जन्म आठ सितम्बर, 1449 (भादों शुक्ल 9, वि.संवत् 1551) को सुल्तानपुर (पंजाब) में हुआ था। जन्म के समय उनके शरीर पर विभूति की एक पतली परत तथा कानों में मांस के कुंडल बने थे। अतः लोग उन्हें भगवान शिव का अवतार मानने लगे।

जिस अवस्था में अन्य बालक खेलकूद में व्यस्त रहते हैं, उस समय बाबा श्रीचंद गहन वन के एकांत में समाधि लगाकर बैठ जाते थे। कुछ बड़े होने पर वे देश भ्रमण को निकल पड़े। उन्होंने तिब्बत, कश्मीर, सिन्ध, काबुल, कंधार, बलूचिस्थान, अफगानिस्तान, गुजरात, पुरी, कटक, गया आदि स्थानों पर जाकर साधु-संतों के दर्शन किये। वे जहां जाते, वहां अपनी वाणी एवं चमत्कारों से  दीन-दुखियों के कष्टों का निवारण करते थे।

धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गयी। बाबा के दर्शन करने के लिए हिन्दू राजाओं के साथ ही मुगल बादशाह हुमायूं, जहांगीर तथा अनेक नवाब व पीर भी प्रायः आते रहते थे। एक बार जहांगीर ने अपने राज्य के प्रसिद्ध पीर सैयद मियां मीर से पूछा कि इस समय दुनिया में सबसे बड़ा आध्यात्मिक बादशाह कौन है ? इस पर मियां मीर ने कहा कि पंजाब की धरती पर निवास कर रहे बाबा श्रीचंद पीरों के पीर और फकीरों के शाह हैं।

एक बार कश्मीर भ्रमण के समय बाबा अपनी मस्ती में धूप में बैठे थे। एक अहंकारी जमींदार ने यह देखकर कहा कि यह बाबा तो खुद धूप में बैठा है, यह दूसरों को भला क्या छाया देगा ? इस पर बाबा श्रीचंद ने यज्ञकुंड से जलती हुई चिनार की लकड़ी निकालकर धरती में गाड़ दी। कुछ ही देर में वह एक विशाल वृक्ष में बदल गयी। यह देखकर जमींदार ने बाबा के पैर पकड़ लिये। वह वृक्ष श्रीचंद चिनारके नाम से आज भी वहां विद्यमान है।

रावी नदी के किनारे चम्बा शहर के राजा के आदेश से कोई नाविक किसी संत-महात्मा को नदी पार नहीं करा सकता था। एक बार बाबा नदी पार जाना चाहते थे। जब कोई नाविक राजा के भयवश तैयार नहीं हुआ, तो उन्होंने एक बड़ी शिला को नदी में ढकेल कर उस पर बैठकर नदी पार कर ली। जब राजा को यह पता लगा तो वह दौड़ा आया और बाबा के पैरों में पड़ गया।

अब बाबा श्रीचंद ने उसे सत्य और धर्म का उपदेश दिया, जिससे उसका अहंकार नष्ट हुआ। उसने भविष्य में सभी साधु-संतों का आदर करने का वचन दिया। इस पर बाबा ने उसे आशीर्वाद दिया। इससे उस राजा के घर में पुत्र का जन्म भी हुआ। यह शिला रावी के तट पर आज भी चम्बा में विद्यमान है। इसकी प्रतिदिन विधि-विधान से पूजा अर्चना की जाती है।

बाबा का विचार था कि हमें हर सुख-दुख को साक्षी भाव से देखना चाहिए। उसमें लिप्त न होकर उसके प्रति उदासीन भाव रखने से मन को कष्ट नहीं होता। सिखों के छठे गुरु श्री हरगोविंद जी के बड़े पुत्र बाबा गुरदित्ता जी को अपना उत्तराधिकारी बनाकर बाबा ने अपनी देहलीला समेट ली।

(संदर्भ : पंजाब केसरी में सरबजीत सिंह बेदी)
.........................................
9 सितम्बर/जन्म-दिवस

युग प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

हिन्दी साहित्य के माध्यम से नवजागरण का शंखनाद करने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी में 9 सितम्बर, 1850 को हुआ था। इनके पिता श्री गोपालचन्द्र अग्रवाल ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे और गिरिधर दासउपनाम से भक्ति रचनाएँ लिखते थे। घर के काव्यमय वातावरण का प्रभाव भारतेन्दु जी पर पड़ा और पाँच वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपना पहला दोहा लिखा।

लै ब्यौड़ा ठाड़े भये, श्री अनिरुद्ध सुजान
बाणासुर की सैन्य को, हनन लगे भगवान्।।

यह दोहा सुनकर पिताजी बहुत प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिया कि तुम निश्चित रूप से मेरा नाम बढ़ाओगे।

भारतेन्दु जी के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। उन्होंने देश के विभिन्न भागों की यात्रा की और वहाँ समाज की स्थिति और रीति-नीतियों को गहराई से देखा। इस यात्रा का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे जनता के हृदय में उतरकर उनकी आत्मा तक पहुँचे। इसी कारण वह ऐसा साहित्य निर्माण करने में सफल हुए, जिससे उन्हें युग-निर्माता कहा जाता है।

16 वर्ष की अवस्था में उन्हें कुछ ऐसी अनुभति हुई, कि उन्हें अपना जीवन हिन्दी की सेवा में अर्पण करना है। आगे चलकर यही उनके जीवन का केन्द्रीय विचार बन गया। उन्होंने लिखा है -

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान कै, मिटे न हिय को सूल।।

भारतेन्दु ने हिन्दी में कवि वचन सुधापत्रिका का प्रकाशन किया। वे अंग्रेजों की खुशामद के विरोधी थे। पत्रिका में प्रकाशित उनके लेखों में सरकार को राजद्रोह की गन्ध आयी। इससे उस पत्र को मिलने वाली शासकीय सहायता बन्द हो गयी; पर वे अपने विचारों पर दृढ़ रहे। वे समझ गये कि सरकार की दया पर निर्भर रहकर हिन्दी और हिन्दू की सेवा नहीं हो सकती।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की राष्ट्रीय भावना का स्वर नील देवीऔर भारत दुर्दशानाटकों में परिलक्षित होता है। अनेक साहित्यकार तो भारत दुर्दशा नाटक से ही राष्ट्र भावना के जागरण का प्रारम्भ मानते हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अनेक विधाओं में साहित्य की रचना की। उनके साहित्यिक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर पण्डित रामेश्वर दत्त व्यास ने उन्हें भारतेन्दुकी उपाधि से विभूषित किया।

प्रख्यात साहित्यकार डा. श्यामसुन्दर व्यास ने लिखा है - जिस दिन से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने भारत दुर्दशा नाटक के प्रारम्भ में समस्त देशवासियों को सम्बोधित कर देश की गिरी हुई अवस्था पर आँसू बहाने को आमन्त्रित किया, इस देश और यहाँ के साहित्य के इतिहास में वह दिन किसी अन्य महापुरुष के जन्म-दिवस से किसी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं है।

भारतेन्दु हिन्दी में नाटक विधा तथा खड़ी बोली के जनक माने जाते हैं। साहित्य निर्माण में डूबे रहने के बाद भी वे सामाजिक सरोकारों से अछूते नहीं थे। उन्होंने स्त्री शिक्षा का सदा पक्ष लिया। 17 वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक पाठशाला खोली, जो अब हरिश्चन्द्र डिग्री कालिज बन गया है।

यह हमारे देश, धर्म और भाषा का दुर्भाग्य रहा कि इतना प्रतिभाशाली साहित्यकार मात्र 35 वर्ष की अवस्था में ही काल के गाल में समा गया। इस अवधि में ही उन्होंने 75 से अधिक ग्रन्थों की रचना की, जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इनमें साहित्य के प्रत्येक अंग का समावेश है।
.....................................
9 सितम्बर/जन्म-दिवस

झण्डा गीत और श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ 

भारत की स्वाधीनता के युद्ध में ‘झंडा गीत’ का बड़ा महत्व है। इसे गाते हुए लाखों लोगों ने ब्रिटिश शासन की लाठी और गोली खायी। आज भी यह गीत सबको प्रेरणा देता है। इस गीत की रचना का बड़ा रोचक इतिहास है।
इसके लेखक श्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ का जन्म कानपुर (उ.प्र.) के पास नरवल गांव में नौ सितम्बर, 1893 को श्री विशेश्वर प्रसाद एवं कौशल्या देवी के घर में हुआ था। मिडिल पास करने के बाद उनके पिताजी ने उन्हें घरेलू व्यापार में लगाना चाहा; पर पार्षद जी की रुचि अध्ययन और अध्यापन में थी। अतः वे जिला परिषद के विद्यालय में पढ़ाने लगे। वहां उनसे यह शपथपत्र भरने को कहा गया कि वे दो साल तक नौकरी नहीं छोड़ेंगे। पार्षद जी ने इसे अपनी स्वाधीनता पर कुठाराघात समझा और नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। 
इसके बाद वे मासिक पत्र ‘सचिव’ का प्रकाशन करने लगे। इसके मुखपृष्ठ पर लिखा होता था -
रामराज्य की शक्ति शान्ति, सुखमय स्वतन्त्रता लाने को
लिया सचिव ने जन्म, देश की परतन्त्रता मिटाने को।।
पार्षद जी की रुचि बालपन से ही कविता में भी थी। 15 वर्ष की अवस्था में उन्होंने हरिगीतिका, सवैया, घनाक्षरी आदि छंदों में रामायण का बालकांड लिखा; पर उनके पिताजी को किसी ने कहा कि कवि सदा दरिद्र रहता है तथा उसका अंग-भंग हो जाता है। अतः उन्होंने उसकी पांडुलिपि को कुएं में फेंक दिया। इससे रुष्ट होकर पार्षद जी अयोध्या चले गये और मौनी बाबा से दीक्षा ले ली। कुछ समय बाद घर वाले उन्हें समझाकर वापस ले आये। 
एक समारोह में पार्षद जी ने अध्यक्ष महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्वागत में कविता पढ़ी। इससे गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ बहुत प्रभावित हुए। 1923 में फतेहपुर (उ.प्र.) में जिला कांग्रेस अधिवेशन में विद्यार्थी जी के ओजस्वी भाषण  के बाद सरकार ने उन्हें जेल भेज दिया। वापस आने पर उनके स्वागत में भी पार्षद जी ने एक कविता पढ़ी। इस प्रकार दोनों की घनिष्ठता बढ़ती गयी।
उन दिनों कांगे्रस का अपना झंडा तो था; पर उसके लिए कोई गीत नहीं था। विद्यार्थी जी ने पार्षद जी से इसके लिए कहा। उन्होंने स्वीकृति तो दे दी; पर काफी समय तक लिख नहीं पाये। इससे विद्यार्थी जी बहुत नाराज हुए। इस पर पार्षद जी ने तीन-चार मार्च, 1924 की रात में यह गीत लिखा -
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा।
सदा शक्ति सरसाने वाला, वीरों को हर्षाने वाला
शान्ति सुधा बरसाने वाला, मातृभूमि का तन मन सारा।
झंडा ऊंचा रहे हमारा।। 
13 अपै्रल, 1924 को ‘जलियांवाला बाग कांड’ की स्मृति में कानपुर के फूलबाग में हुई सभा में नेहरु जी की उपस्थिति में यह गीत पहली बार गाया गया। क्रमशः यह गीत लोकप्रिय होता गया। 1938 के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में जब गांधी जी और नेहरु आदि ने इसे गाया, तो पार्षद जी भाव विभोर हो उठे। वे ‘असहयोग आंदोलन’ और ‘नमक आंदोलन’ में जेल भी गये। 1921 में उन्होंने स्वराज्य प्राप्ति तक नंगे पांव रहने का व्रत लिया और उसे निभाया।
पर आजादी के बाद कांग्रेस का हाल देखकर पार्षद जी खिन्न हो गये। एक बार उनसे एक मित्र ने पूछा कि आजकल क्या लिख रहे हो ? वे बोले - नया तो नहीं लिखा; पर पुराने ‘झंडा गीत’ में यह संशोधन कर दिया है। 
इसकी शान भले ही जाए; पर कुर्सी न जाने पाये।।
आगे चलकर उन्होंने ग्राम नरवल में ही ‘गणेश सेवा आश्रम’ खोला। वहां प्रतिदिन वे पैदल जाते थे। एक बार उनके पैर में कांच चुभ गया। पैसे के अभाव में इलाज ठीक से नहीं हो पाया और गैंगरीन हो जाने से 10 अगस्त, 1977 को उनका देहान्त हो गया।
                    --------------------------
9 सितम्बर/जन्म-दिवस

भारती पत्रिका के संस्थापक  : दादा भाई
आज सब ओर अंग्रेजीकरण का वातावरण है। संस्कृत को मृत भाषा माना जाता है। ऐसे में श्री गिरिराज शास्त्री (दादा भाई) ने संस्कृत की मासिक पत्रिका भारतीका कुशल संचालन कर लोगों को एक नयी राह दिखाई है। 

दादा भाई का जन्म नौ सितम्बर, 1919 (अनंत चतुर्दशी) को राजस्थान के भरतपुर जिले के कामां नगर में आचार्य आनंदीलाल और श्रीमती चंद्राबाई के घर में हुआ था। इनके पूर्वज राजवैद्य थे। कक्षा छह के बाद दादा भाई ने संस्कृत की प्रवेशिका, उपाध्याय तथा शास्त्री उपाधियां ली। यजुर्वेद का विशेष अध्ययन करते हुए उन्होंने इंटरमीडियेट की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। स्वस्थ व सुडौल शरीर होने के कारण लोग इन्हें पहलवान भी कहते थे।

13 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया था। शिक्षा पूर्णकर वे जयपुर के रथखाना विद्यालय में संस्कृत पढ़ाने लगे। 1942 में वे जयपुर में ही स्वयंसेवक बने। व्यायाम के शौकीन दादाभाई को शाखा के खेल, सूर्यनमस्कार आदि बहुत अच्छे लगे और वे संघ में ही रम गये। इसके बाद उन्होंने 1943, 44 तथा 45 में तीनों संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया।

स्वाधीनता से पूर्व जयपुर रियासत में संघ पर प्रतिबंध था। अतः शाखा सत्संगके नाम से लगती थीं। प्रान्त प्रचारक श्री बच्छराज व्यास ने सावधानी रखने के लिए प्रमुख कार्यकर्ताओं को उपनाम दे दियेे। गिरिराज जी को उन्होंने 'दादा भाई' नाम दिया। तब से उनका यही नाम सब ओर प्रचलित हो गया।

तृतीय वर्ष कर दादा भाई जयपुर नगर कार्यवाह, नगर प्रचारक तथा सीकर और झुंझनु में जिला प्रचारक रहे। प्रतिबंध काल में नौकरी छूटने से सरकार्यवाह श्री एकनाथ रानाडे ने संघ कार्यालय पर उनके रहने की व्यवस्था कर दी। बाबा साहब आप्टे के सुझाव पर दादा भाई के सम्पादन में 1950 की दीपावली से देश की प्रथम मासिक संस्कृत पत्रिका भारतीप्रारम्भ हो गयी।

1953 से 92 तक दादा भाई राजस्थान के प्रान्त कार्यवाह रहे। इस दौरान श्री गुरुजी के 51 वें जन्मदिवस पर हुए धनसंग्रह, गोरक्षा हेतु हस्ताक्षर संग्रह, स्वामी विवेकानंद एवं श्री अरविन्द की जन्मशती, श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन आदि में दादा भाई की सक्रिय भूमिका रही। 1975 के प्रतिबंध काल में दादा भाई वेश बदलकर पूरे प्रान्त में घूमते रहे। पुलिस लाख प्रयास करने पर भी उन्हें पकड़ नहीं सकी। 1990 में कारसेवा के लिए अयोध्या जाते समय उन्हें मथुरा के नरहोली थाने में 15 दिन तक बन्दी बनाकर रखा गया।

1992 में उनके स्वास्थ्य के ढीलेपन को देखकर उन्हें क्रमशः प्रान्त संपर्क प्रमुख, क्षेत्र प्रचार प्रमुख तथा फिर क्षेत्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। 1997 से 2006 तक वे पाथेय कण संस्थानके अध्यक्ष भी रहे। इस सबके बीच भारती पत्रिका की ओर उनका पूरा ध्यान रहता था।

2009 में उनके 90 वर्ष पूर्ण होने पर आयोजित समारोह में सरसंघचालक श्री मोहन भागवत, उपराष्ट्रपति श्री भैरोंसिंह शेखावत, डा' मुरली मनोहर जोशी आदि गण्यमान्य लोग सम्मिलित हुए। इसके बाद दादा भाई की देह शिथिल होती गयी और 13 मार्च, 2012 को ब्रह्ममुहूर्त में उनका प्राणान्त हो गया। दादा भाई ने जीते जी देहदान का संकल्प पत्र भर दिया था। अतः उनकी देह छात्रों के उपयोग हेतु चिकित्सा महाविद्यालय को समर्पित कर दी गयी। 
(संदर्भ: पाथेय कण अपै्रल प्रथम, 2012)
............................................
10 सितम्बर/बलिदान-दिवस             

क्रान्तिवीर बाघा जतीन का बलिदान

उड़ीसा के काया ग्राम में जन्मा बालक ज्योतिन्द्रनाथ मुखर्जी बचपन से ही बहुत साहसी था। उसे खतरों से खेलने में मजा आता था। व्यायाम से उसने अपनी देह सुडौल बना ली थी। उसे घोड़े की सवारी का भी शौक था। जब वह किशोर था, तो एक बार उसके गाँव के पास जंगलों में एक बाघ आ गया। वह मौका पाकर पशुओं को मार देता था। लोगों को लगा कि यदि उसे न मारा गया, तो वह गाँव में घुसकर मनुष्यों को भी मारने लगेगा।

गाँव वालों ने एक दिन बाघ को मारने का निश्चय कर लिया। हाथ में कटार लिये ज्योतिन्द्र और बन्दूक लिये उसका ममेरा भाई भी एक झाड़ी में छिप गये। सब लोगों ने हाँका लगाया। इससे बाघ के आराम में बाधा पड़ी। वह उसी झाड़ी में आराम कर रहा था, जहाँ ज्योतिन्द्र खड़ा था। बाघ बाहर निकलकर जोर से दहाड़ा। ज्योतिन्द्र और बाघ कुछ देर तक एक दूसरे की आँखों में आँखें डालकर देखते रहे। फिर उसने ज्योतिन्द्र पर हमला बोल दिया। ज्योतिन्द्र घबराया नहीं। उसने बायें हाथ से बाघ की गरदन जकड़ ली और दायें हाथ से उस पर कटार के वार करने लगा।

यह देखकर गाँव के अन्य लोग डरकर भाग गये। ज्योतिन्द्र का भाई भी संकट में था। गोली चलाने पर वह बाघ और जतीन में से किसी को भी लग सकती थी। अन्ततः बाघ ने हार मान ली। घावों से घायल होकर उसने वहीं दम तोड़ दिया। ज्योतिन्द्र भी बुरी तरह घायल हो गया। इससे उसकी ख्याति चारों ओर फैल गयी। लोग उसे बाघा जतीन कहने लगे।

आगे चलकर बाघा जतीन अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने वाले क्रान्तिकारियों की टोली में शामिल हो गये। उन्होंने बालासोर के जंगलों में अपना ठिकाना बनाया। वहाँ से समुद्र निकट था। उन्हें समाचार मिला था कि मेवेरिक नामक जहाज से जर्मनी से भारी मात्रा में शस्त्रास्त्र क्रान्तिकारियों के लिए आ रहे हैं। उसी की प्रतीक्षा में अपने चार साथियों के साथ वे वहाँ डट गये।

पर पुलिस को भी इसकी भनक मिल गयी। पुलिस अधिकारी टैगर्ट के नेतृत्व में उन्होंने इन नवयुवक क्रान्तिकारियों को घेर लिया। जतीन के साथियों ने उनसे चले जाने का आग्रह किया; पर बाघा जतीन ने पलायन से स्पष्ट मना कर दिया। इतना ही नहीं, उनके दो साथी 20 किलोमीटर दूर जंगल में थे। उन्हें सूचना देने के लिए सब लोग पैदल ही चल दिये।

भूख के मारे सबका बुरा हाल था। उन्होंने एक मल्लाह से कुछ खिलाने का आग्रह किया; पर उसने धर्म-भ्रष्ट होने के भय से इन ब्राह्मण युवकों को भोजन नहीं कराया। जैसे-तैसे वे अपने साथियों के पास पहुँचे और उन्हें साथ लेकर वापस चल दिये। उधर टैगर्ट शस्त्रों से सज्ज पुलिसबल और सर्चलाइट लेकर उनकी तलाश में था। 9 सितम्बर 1915 को उनकी मुठभेड़ हो गयी।

भारी गोलाबारी में चित्तप्रिय वहीं बलिदान हो गया। बाघा जतीन और मनोरंजन को भी कई गोलियाँ लगीं। शेष साथियों को जतीन ने भाग जाने का आदेश दिया। जतीन ने बेहोशी की हालत में पानी माँगा। मनोरंजन किसी तरह गिरता-पड़ता अपनी धोती भिगोकर पानी लाया। यह देखकर टैगर्ट भी द्रवित हो उठा। उसने जतीन को अपने हैट में लाकर पानी पिलाया।

होश में आने पर पुलिस ने उनसे साथियों के नाम पूछे; पर वे चुप रहे। उन्हें बालासोर के अस्पताल में भर्ती किया गया, जहाँ अगले दिन 10 सितम्बर, 1915 को उनका देहान्त हो गया।
..............................
10 सितम्बर/पुण्य-तिथि

प्रेमावतार नीम करौरी बाबा

बात बहुत पुरानी है। अपनी मस्ती में एक युवा योगी लक्ष्मण दास हाथ में चिमटा और कमण्डल लिये फरुर्खाबाद (उ.प्र.) से टूण्डला जा रही रेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में चढ़ गया। गाड़ी कुछ दूर ही चली थी कि एक एंग्लो इण्डियन टिकट निरीक्षक वहाँ आया। उसने बहुत कम कपड़े पहने, अस्त-व्यस्त बाल वाले बिना टिकट योगी को देखा, तो क्रोधित होकर अण्ट-सण्ट बकने लगा। योगी अपनी मस्ती में चूर था। अतः वह चुप रहा।

कुछ देर बाद गाड़ी नीब करौरी नामक छोटे स्टेशन पर रुकी। टिकट निरीक्षक ने उसे अपमानित करते हुए उतार दिया। योगी ने वहीं अपना चिमटा गाड़ दिया और शान्त भाव से बैठ गया। गार्ड ने झण्डी हिलाई; पर गाड़ी बढ़ी ही नहीं। पूरी भाप देने पर पहिये अपने स्थान पर ही घूम गये। इंजन की जाँच की गयी, तो वह एकदम ठीक था। अब तो चालक, गार्ड और टिकट निरीक्षक के माथे पर पसीना आ गया। कुछ यात्रियों ने टिकट निरीक्षक से कहा कि बाबा को चढ़ा लो, तब शायद गाड़ी चल पड़े।

मरता क्या न करता, उसने बाबा से क्षमा माँगी और गाड़ी में बैठने का अनुरोध किया। बाबा बोले - चलो तुम कहते हो, तो बैठ जाते हैं। उनके बैठते ही गाड़ी चल दी। इस घटना से वह योगी और नीबकरौरी गाँव प्रसिद्ध हो गया। बाबा आगे चलकर कई साल तक उस गाँव में रहे और नीम करौरी बाबा या बाबा नीम करौली के नाम से विख्यात हुए। वैसे उनका मूल नाम लक्ष्मीनारायण शर्मा था तथा उनका जन्म अकबरपुर (उ.प्र.) में हुआ था। बाबा ने अपना मुख्य आश्रम नैनीताल (उत्तरांचल) की सुरम्य घाटी में कैंची ग्राम में बनाया। यहाँ बनी रामकुटी में वे प्रायः एक काला कम्बल ओढ़े भक्तों से मिलते थे।

बाबा ने देश भर में 12 प्रमुख मन्दिर बनवाये। उनके देहान्त के बाद भी भक्तों ने 9 मन्दिर बनवाये हैं। इनमें मुख्यतः हनुमान् जी की प्रतिमा है। बाबा चमत्कारी पुरुष थे। अचानक गायब या प्रकट होना, भक्तों की कठिनाई को भाँप कर उसे समय से पहले ही ठीक कर देना, इच्छानुसार शरीर को मोटा या पतला करना..आदि कई चमत्कारों की चर्चा उनके भक्त करते हैं। बाबा का प्रभाव इतना था कि जब वे कहीं मन्दिर स्थापना या भण्डारे आदि का आयोजन करते थे, तो न जाने कहाँ से दान और सहयोग देने वाले उमड़ पड़ते थे और वह कार्य भली भाँति सम्पन्न हो जाता था।

जब बाबा को लगा कि उन्हें शरीर छोड़ देना चाहिए, तो उन्होंने भक्तों को इसका संकेत कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने अपने समाधि स्थल का भी चयन कर लिया था। 9 सितम्बर, 1973 को वे आगरा के लिए चले। वे एक कापी पर हर दिन रामनाम लिखते थे। जाते समय उन्होंने वह कापी आश्रम की प्रमुख श्रीमाँ को सौंप दी और कहा कि अब तुम ही इसमें लिखना। उन्होंने अपना थर्मस भी रेल से बाहर फेंक दिया। गंगाजली यह कह कर रिक्शा वाले को दे दी कि किसी वस्तु से मोह नहीं करना चाहिए।

आगरा से बाबा मथुरा की गाड़ी में बैठे। मथुरा उतरते ही वे अचेत हो गये। लोगों ने शीघ्रता से उन्हें रामकृष्ण मिशन अस्पताल, वृन्दावन में पहुँचाया, जहाँ 10 सितम्बर, 1973 (अनन्त चतुर्दशी) की रात्रि में उन्होंने देह त्याग दी।

बाबा की समाधि वृन्दावन में तो है ही; पर कैंची, नीब करौरी, वीरापुरम (चेन्नई) और लखनऊ में भी उनके अस्थि कलशों को भू समाधि दी गयी। उनके लाखों देशी एवं विदेशी भक्त हर दिन इन मन्दिरों एवं समाधि स्थलों पर जाकर बाबा का अदृश्य आशीर्वाद ग्रहण करते हैं।
................................
10 सितम्बर/पुण्य-तिथि

बंगाल में संघ कार्य के स्तम्भ अमल कुमार बसु

श्री अमल कुमार बसु का जन्म म.प्र. के धार नगर में 1926 में हुआ था। उनके पूर्वज बंगाल में 24 परगना जिले के डायमंड हार्बर में जमींदार थे; पर उनके पिताजी वकालत के लिए धार आ गये। यहीं उनकी अधिकांश शिक्षा हुई और वे स्वयंसेवक बने। 

मेधावी होने के नाते उन्हें दो बार बिना परीक्षा दिये ही एक कक्षा आगे बढ़ा दिया गया। उन्होंने अंग्रेजी सहित तीन विषयों में एम.ए. किया था। कानून की उपाधि उन्होंने प्रथम श्रेणी में भी प्रथम रहकर प्राप्त की। जबलपुर के मिशनरी कॉलिज में पढ़ते समय संघ के प्रचारक श्री एकनाथ रानाडे से उनकी घनिष्ठता हुई, जो आजीवन बनी रही। उन्हें उच्च शिक्षा के लिए विदेश में पढ़ने का अवसर मिला था; पर इसे ठुकरा कर वे प्रचारक बन गये।

अमल दा ने 1940 में नागपुर से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया था। यहीं डा. हेडगेवार ने अपने जीवन का अंतिम भाषण दिया था। इसके बाद अमल दा ने अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य संघ कार्य को ही बना लिया। 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन तथा 1948 के प्रतिबंध काल में वे जेल गये। प्रतिबंध हटने के बाद श्री एकनाथ रानाडे के आग्रह पर श्री गुरुजी ने उन्हें बंगाल भेज दिया। इससे पूर्व वे म.प्र. के जबलपुर में विभाग प्रचारक थे। बंगाल में 1950 में वे सहप्रांत प्रचारक और फिर प्रांत प्रचारक बनाये गये।

1948 के प्रतिबंध काल में संघ की अर्थव्यवस्था बिगड़ गयी थी। अतः प्रचारकों को भी कुछ काम करने को कहा गया। अमल दा बी.एड. और फिर एम.एड. कर न्यू बैरकपुर के बी.टी.कॉलिज में पढ़ाने लगे। आगे चलकर वे यहीं प्राचार्य भी बने। 1961 में वे प्रांत कार्यवाह, 1979 में प्रांत संघचालक तथा 1985 में पूर्व क्षेत्र ‘विद्या भारती’ के अध्यक्ष बनाये गये। वे ‘स्वस्तिका प्रकाशन’ के न्यासी, ‘डा. हेडगेवार स्मारक समिति’ के बंगाल प्रांत के अध्यक्ष तथा 1971 में बनी ‘वास्तुहारा सहायता समिति’ के भी अध्यक्ष थे।

ज्ञान के भंडार अमल दा धीर-गंभीर और कर्म कठोर होते हुए भी भीतर से बहुत कोमल थे। 1964 में एक कार्यकर्ता शिविर में शारीरिक प्रदर्शन के बाद श्री गुरुजी का भाषण प्रारम्भ होते ही तेज वर्षा होने लगी। गुरुजी ने पूछा - क्यों अमल दा, भाषण बंद कर दूं ? अमल दा ने दृढ़ता से मना कर दिया। फिर तो 40 मिनट का भाषण वर्षा में ही हुआ। वर्षा से भोजनालय में सब सामान भीग गया। अतः रात में भोजन नहीं बना; पर सब स्वयंसेवक शांत रहे, चूंकि सबके साथ अमल दा भी भूखे रहे। 

1969 में कोलकाता में संघ शिक्षा वर्ग के लिए जुगेर प्रतीक क्लब ने अपने मैदान की स्वीकृति दी थी; पर अंतिम समय में उन्होंने मना कर दिया। क्रोधित होकर अमल दा ने सिर पर अंगोछा बांधा और स्वयंसेवकों को लेकर मैदान की सफाई करने लगे। उनका रौद्र रूप देखकर क्लब वालों ने क्षमा मांगी और मैदान उपलब्ध करा दिया।

1975 के प्रतिबंध काल में वे ‘मीसा’ के अन्तर्गत जेल में रहे। उनकी सजा बढ़ाते समय राज्यपाल की ओर से एक औपचारिक पत्र आया कि आपकी सजा बढ़ाते हुए मुझे ‘प्रसन्नता’ हो रही है। इस पर अमल दा भड़क गये। उन्होंने जवाब दिया, ‘‘मैं स्वतन्त्र देश का नागरिक और एक बी.एड. कॉलिज का अध्यक्ष हूं। जो शिक्षक नयी पीढ़ी को पढ़ाकर देश के निर्माण में सहयोग देते हैं, मैं उन्हें पढ़ाता हूं। मैं अपराधी नहीं हूं, फिर भी आपने मुझे जेल में डाला है और इसकी अवधि बढ़ाते हुए आपको ‘प्रसन्नता’ हो रही है। आपका यह शब्द गलत है।’’ उसके बाद फिर उनके पास ऐसा पत्र नहीं आया। 

स्वयं शिक्षक होने के कारण अमल दा ने बंगाल में ‘विद्या भारती’ के काम को बढ़ाने में खूब रुचि ली। अंत समय तक कोलकाता के संघ कार्यालय पर रहते हुए वे संघ विचार के सभी संगठनों के संरक्षक की भूमिका निभाते रहे। 10 सितम्बर, 2014 को 88 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। 


(संदर्भ : स्वस्तिका 29.9.14/पांचजन्य 12.10.14)
-----------------------------------------------
10 सितम्बर/जन्म-दिवस

आदर्श स्वयंसेवक सत्यनारायण बंसल

श्री सत्यनारायण बंसल का जन्म 10 सितम्बर, 1927 (अनंत चतुर्दशी) को हुआ था। उनके पिता श्री बिशनस्वरूप सामाजिक कायकर्ता तथा तथा कोयले के बड़े व्यापारी थे। सत्यनारायण जी ने बी.कॉमएम.ए. (राजनीति शास्त्र) तथा कानून की उपाधियां प्रथम श्रेणी में प्राप्त कीं। छात्र-जीवन में क्रांतिवीर मास्टर अमीरचंद के संपर्क में आकर उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया।

सत्यनारायण जी अपने नाम के अनुरूप सदा सत्य पर अड़ जाते थे। एक बार पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास के शिव मंदिर को अंग्रेज शासन हटाना चाहता था। सत्यनारायण जी के नेतृत्व में स्थानीय लोगों ने सत्याग्रह कर उस मंदिर को बचा लिया। आज भी वह मंदिर वहां है। 1944 में वे स्वयंसेवक बने तथा 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर सत्याग्रह कर छह माह जेल में रहे। प्रतिबंध समाप्ति के बाद वे कई वर्ष तक चांदनी चौक के जिला कार्यवाह रहे।1966 में गोहत्या बंदी आंदोलन में भी वे एक मास जेल में रहे।

संघ के साथ उन्होंने श्री वैश्य अग्रवाल पंचायतअखिल भारतीय हिन्दू महासभाश्री धार्मिक रामलीला कमेटीइन्द्रप्रस्थ सेवक मंडलीहिन्दी साहित्य सम्मेलनसंस्कार भारतीहिन्दू शिक्षा समिति आदि में पदाधिकारी रहते हुए काम किया। उन्होंने पांच वर्ष तक इतिहास’ नामक पत्रिका का सम्पादन भी किया। दिल्ली में हिन्दू हित के हर काम में वे सदा आगे रहते थे। उनके जुड़ने से उस संस्था की प्रतिष्ठा एवं विश्वसनीयता स्वयं ही बढ़ जाती थी। इसके बाद भी वे किसी संस्था से लिप्त नहीं हुए। जिस प्रसन्नता से उन्होेंने जिम्मेदारी लीसमय आने पर उसी प्रकार वे उससे मुक्त भी हो गये।

सत्यनारायण जी 1969 में दिल्ली प्रदेश जनसंघ के सहमंत्री तथा फिर महामंत्री और अध्यक्ष बने। 1975 में आपातकाल लगने पर वे सत्याग्रह कर 'मीसा' के अन्तर्गत 19 मास बन्दी रहे। इसके बाद वे तीन वर्ष दिल्ली नगर निगम की स्थायी समिति के अध्यक्ष तथा 1980 से 1987 तक भाजपा के वरिष्ठ उपाध्यक्ष रहे। वे धरनाप्रदर्शनलाठी और जेल से कभी नहीं डरे। ऐसे समय में वे सबसे आगे रहकर कार्यकर्ताओं का साहस बढ़ाते थे।

1987 में वे फिर संघ में सक्रिय हुए। अब उन्हें दिल्ली प्रांत संघचालक की जिम्मेदारी दी गयी। 20 वर्ष तक उन्होंने इसे निभाया। वे कई वर्ष भारत प्रकाशन लिमिटेड के प्रबंध निदेशक एवं अध्यक्ष रहेजो हिन्दी में साप्ताहिक पांचजन्य और अंग्रेजी में आर्गनाइजर प्रकाशित करती है। वे स्वयं अध्ययनशील थे तथा सब कार्यकर्ताओं से खूब पढ़ने का आग्रह करते थे।

सत्यनारायण जी व्यक्ति के नहींअपितु संघ के प्रति निष्ठावान थे। जब वे स्वयंसेवक बनेउन दिनों श्री वसंतराव ओक प्रांत प्रचारक थेजो आगे चलकर किसी कारण संघ से अलग हो गयेपर सत्यनारायण जी ने संघ नहीं छोड़ा। वे दिल्ली के चप्पे-चप्पे से परिचित थे। कार्यकर्ता को उनके पास बैठते ही इसका अनुभव होता था। वे कार्यकर्ता के मन को समझने और संभालने पर बहुत जोर देते थे। इसके लिए वे उनसे घर-परिवार और कारोबार आदि के बारे में भी खूब चर्चा करते थे। उनका मत था कि यदि कार्यकर्ता का मन ठीक रहातो वह संघ का काम किये बिना रह ही नहीं सकता।

आंखें खराब होने से जब उनके लिए कहीं जाना कठिन हो गयातब भी वे कार्यकर्ताओं को घर बुलाकर उन्हें अपने अनुभव से लाभान्वित करते रहते थे। 19 फरवरी, 2011 को उनका देहांत हुआ। उनकी श्रद्धांजलि सभा में सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने कहा कि उनके नाम के साथ कोई और विशेषण लगाने की आवश्यकता नहीं है। वे स्वयंसेवक थेयह कहना ही पर्याप्त है।  
(संदर्भ : पांचजन्य)
-----------------------------------------------------------------------------

10 सितम्बर/जन्म-दिवस

जुझारू प्रचारक खेमचंद शर्मा

संघ और विश्व हिन्दू परिषद में कार्यरत वरिष्ठ प्रचारक खेमचंद शर्मा का जन्म नौएडा के पास रबूपुरा गांव में 10 सितम्बर, 1954 को हुआ था। उनके पिता श्री मंगूदत्त शर्मा एवं माता श्रीमती भगवती देवी थीं। चार भाई-बहिनों में वे सबसे छोटे थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई। 1966 में उन्होंने शाखा जाना शुरू किया। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार और श्री गुरुजी की जीवनी से प्रभावित होकर 1976-77 में बी.एस-सी. करते हुए ही वे प्रचारक बन गये। उन्होंने 1977, 78 तथा 1980 में संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण प्राप्त किये। वे बचपन से ही जुझारू प्रवृत्ति के थे। अतः पहले उन्हें अलीगढ़ में विद्यार्थी शाखाओं का और फिर 1981 में आगरा जिला प्रचारक बनाया गया।

1980 के दशक में पंजाब का माहौल बहुत खराब था। पाकिस्तान की शह पर उग्रवादी घटनाएं हर दिन हो रही थीं। बसों में से उतारकर हिन्दुओं का मारा जा रहा था। अतः हिन्दू वहां से पलायन करने लगे। ऐसे में संघ ने पूरे देश से कुछ जुझारू प्रचारकों को वहां भेजने का निर्णय लिया। हर प्रांत से एक प्रचारक की मांग की गयी। पश्चिम उत्तर प्रदेश से तीन प्रचारकों ने वहां जाने की इच्छा व्यक्त की। उनमें से खेमचंद भी एक थे। तब वे मुरादाबाद के जिला प्रचारक थे। संघ नेतृत्व ने उन्हें वहां भेजने का निर्णय लिया।

उस समय पाकिस्तान की सीमा से लगा तरनतारन उग्रवाद से सबसे अधिक प्रभावित था। खेमचंद जी ने स्वेच्छा से उसे ही चुना। अतः उन्हें वहां का जिला प्रचारक बनाया गया। उस दौरान शाखा और हिन्दू कार्यकर्ताओं पर हमले होते थे। एक बार आतंकियों ने संघ के कुछ कार्यकर्ताओं का अपहरण कर लिया। खेमचंद जी उनके गढ़ में घुसकर कार्यकर्ताओं को निकाल लाये। वे जान की परवाह किये बिना उग्रवादियों और शासन-प्रशासन से भिड़ जाते थे।

उन्हीं दिनों विश्व हिन्दू परिषद के नेतृत्व में राममंदिर आंदोलन उभार पर था। अतः 1990 में उन्हें पंजाब में बजरंग दल का काम दिया गया। इससे अयोध्या के हर अभियान में पंजाबी युवा आने लगे। पंजाब मीट्स लिमिटेड तथा डेरा बस्सी कत्लखाने को बंद कराने के लिए हुए आंदोलन में उनकी बड़ी भूमिका रही। 1997 में उन्हें जम्मू में वि.हि. प. का संगठन मंत्री बनाया गया। इसके बाद 1997 में पंजाब, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के संगठन मंत्री तथा फिर 2005 में केन्द्रीय मंत्री बनाकर मठ-मंदिर आयाम का काम दिया गया। अब उनका केन्द्र दिल्ली में वि.हि.प का केन्द्रीय कार्यालय रामकृष्णपुरम् हो गया। कुछ समय वे इंद्रप्रस्थ क्षेत्र में सह संगठन मंत्री भी रहे। स्पष्टवादी होने के बावजूद वे निर्णय से पूर्व संगठन में हर स्तर पर विचार-विमर्श जरूर करते थे।

2009 में उन्हें गोरक्षा आयाम की जिम्मेदारी दी गयी। यह विषय स्थापना काल से ही वि.हि.प. की प्राथमिकता में रहा है। इस दौरान उन्होंने महिला एवं युवा वर्ग को गोरक्षा और गोसेवा से जोड़ा। उनका आग्रह रहता था कि गोशाला में पंचगव्य उत्पाद बनें, जिससे वह आत्मनिर्भर हो। गोवंश आधारित खेती, हर किसान के घर गाय, पंचगव्य से मानव, पशु तथा खेती की दवाइयां, बैलचालित कृषि उपकरण तथा हर तरह के प्रशिक्षण वर्ग पर भी वे जोर देते थे। भोजन से पूर्व गोग्रास निकालने का उनका नियम था।

खेमचंद जी स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहते थे। साल में एक-दो बार पूरे शरीर का निरीक्षण-परीक्षण भी करवाते थे। अति प्रातः ही वे स्नान, ध्यान, पूजा, प्राणायाम आदि कर लेते थे। फिर भी वे धीरे-धीरे कई रोगों के शिकार हो गये। आठ फरवरी को उन्हें सांस लेने में परेशानी अनुभव हुई। वे वायरल बुखार से भी पीडि़त थे। सबके आग्रह पर भी वे अस्पताल नहीं गये और अगले दिन जाने को कहा; पर नौ फरवरी, 2023 को ब्रह्ममुर्हूत में हुए भीषण हृदयाघात से अपने कमरे में ही उनका प्राणांत हो गया। इस प्रकार बिना किसी को कष्ट दिये वे अनंत की यात्रा पर चले गये।

(संदर्भ: गोसम्पदा मार्च 2023)

---------------------------------------------------------------------------

11 सितम्बर/जन्म-दिवस
भूदान यज्ञ के प्रणेता विनोबा भावे
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद निर्धन भूमिहीनों को भूमि दिलाने के लिए हुए भूदान यज्ञके प्रणेता विनायक नरहरि (विनोबा) भावे का जन्म 11 सितम्बर, 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गागोदा ग्राम में हुआ था। इनके पिता श्री नरहरि पन्त तथा माता श्रीमती रघुमाई थीं। विनायक बहुत ही विलक्षण बालक था। वह एक बार जो पढ़ लेता, उसे सदा के लिए कण्ठस्थ हो जाता। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा बड़ौदा में हुई। वहाँ के पुस्तकालय में उन्होंने धर्म, दर्शन और साहित्य की हजारों पुस्तकें पढ़ीं।

विनोबा पर उनकी माँ तथा गांधी जी की शिक्षाओं का बहुत प्रभाव पड़ा। अपनी माँ के आग्रह पर उन्होंने श्रीमद भगवद्गीताका गीताईनामक मराठी काव्यानुुवाद किया। काशी विश्वविद्यालय में संस्कृत का अध्ययन करते समय उन्होंने गांधी जी के विचार समाचार पत्रों में पढ़े। उससे प्रभावित होकर उन्होंने अपना जीवन उन्हें समर्पित कर दिया और गांधी जी के निर्देश पर साबरमती आश्रम के वृद्धाश्रम की देखरेख करने लगे। उनके मन में प्रारम्भ से ही नौकरी करने की इच्छा नहीं थी। इसलिए काशी जाने से पूर्व ही उन्होंने अपने सब शैक्षिक प्रमाण पत्र जला दिये। 1923 में वे झण्डा सत्याग्रह के दौरान नागपुर में गिरफ्तार हुए। उन्हें एक वर्ष की सजा दी गयी।

1940 में भारत छोड़ो आन्दोलनप्रारम्भ होने पर गान्धी जी ने उन्हें प्रथम सत्याग्रही के रूप में चुना। इसके बाद वे तीन साल तक वर्धा जेल में रहे। वहाँ गीता पर दिये गये उनके प्रवचन बहुत विख्यात हैं। बाद में वे पुस्तक रूप में प्रकाशित भी हुए। गीता की इतनी सरल एवं सुबोध व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ है। 1932 में उन्होंने वर्धा के पास पवनार नदी के तट पर एक आश्रम बनाया। जेल से लौटकर वे वहीं रहने लगे। विभाजन के बाद हुए दंगों की आग को शान्त करने के लिए वे देश के अनेक स्थानों पर गये।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद 1948 में विनोबा ने सर्वोदय समाजकी स्थापना की। इसके बाद 1951 में उन्होंने भूदान यज्ञ का बीड़ा उठाया। इसके अन्तर्गत वे देश भर में घूमे। वे जमीदारों से भूमि दान करने की अपील करते थे। दान में मिली भूमि को वे उसी गाँव के भूमिहीनों को बाँट देते थे। इस प्रकार उन्होंने 70 लाख हेक्टेयर भूमि निर्धनों में बाँटकर उन्हें किसान का दर्जा दिलाया। 19 मई, 1960 को विनोबा भावे ने चम्बल के बीहड़ों में आतंक का पर्याय बने अनेक डाकुओं का आत्मसमर्पण कराया। जयप्रकाश नारायण ने इन कार्यों में उनका पूरा साथ दिया।

जब उनका शरीर कुछ शिथिल हो गया, तो वे वर्धा में ही रहने लगे। वहीं रहकर वे गांधी जी के आचार, विचार और व्यवहार के अनुसार काम करते रहे। गोहत्या बन्दी के लिए उन्होंने अनेक प्रयास किये; पर शासन द्वारा कोई ध्यान ने देने पर उनके मन को भारी चोट लगी। 1975 में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाये गये आपातकाल का समर्थन करते हुए उसे उन्होंने अनुशासन पर्वकहा। इस कारण उन्हें पूरे देश में आलोचना सहनी पड़ी।

विनोबा जी ने जेल यात्रा के दौरान अनेक भाषाएँ सीखीं। उनके जीवन में सादगी तथा परोपकार की भावना कूट-कूटकर भरी थी। अल्पाहारी विनोबा वसुधैव कुटुम्बकम् के प्रबल समर्थक थे। सन्तुलित आहार एवं नियमित दिनचर्या के कारण वे आजीवन सक्रिय रहे। जब उन्हें लगा कि अब यह शरीर कार्ययोग्य नहीं रहा, तो उन्होंने सन्थारा व्रतलेकर अन्न, जल और दवा त्याग दी।
15 नवम्बर, 1982 को सन्त विनोबा का देहान्त हुआ। अपने जीवनकाल में वे भारत रत्नका सम्मान ठुकरा चुके थे। अतः 1983 में शासन ने उन्हें मरणोपरान्त भारत रत्नसे विभूषित किया।
................................
11 सितम्बर/जन्म-दिवस
रामभक्त जिलाधीश के.के.नायर 

अयोध्या स्थित श्रीरामजन्मभूमि प्रकरण को निष्कर्ष तक पहुंचाने में जिन महानुभावों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही, उनमें अयोध्या के जिलाधीश श्री के.के. (कान्दनगलाथिल करुणाकरण) नायर का नाम बहुत आदर से लिया जाता है। उनका जन्म 11 सितम्बर, 1907 को केरल के अलपुझा जिले के कुट्टनाद गांव में हुआ था। मद्रास वि.वि. तथा अलीगढ़ (उ.प्र) के बारहसेनी कालिज के बाद उन्होंने लंदन वि.वि. में शिक्षा प्राप्त की। केवल 21 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अति प्रतिष्ठित आई.सी.एस. की प्रतियोगिता उत्तीर्ण की। उ.प्र. में कई जगह रहने के बाद 1949 में वे फैजाबाद के जिलाधिकारी बनाये गये।

श्री नायर प्रखर रामभक्त थे। उन्हें यह देखकर बड़ा दुख होता था कि श्रीरामजन्मस्थान पर एक वीरान ‘बाबरी मस्जिद’ खड़ी है, जिसमें नमाज भी नहीं पढ़ी जाती। उन्होंने अपने सहायक जिलाधिकारी श्री गुरुदत्त सिंह से विस्तृत सर्वेक्षण कर रिपोर्ट बनाने को कहा। उससे उन्हें पता लगा कि अयोध्या के लोग वहां पर भव्य मंदिर बनाना चाहते हैं। सरकार के अधिकार में होने से जमीन के हस्तांतरण में कोई बाधा भी नहीं है। इसी बीच 22-23 दिसम्बर, 1949 की रात में हिन्दुओं के एक बड़े समूह ने वहां रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी। रात में ही रामलला के दिव्य प्राकट्य की बात सब ओर फैल गयी। हजारों लोग वहां आकर नाचने-गाने और कीर्तन करने लगे।

उस समय जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे। उन्होंने उ.प्र. के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत को कहा कि मूर्तियों को वहां से हटाया जाए; पर श्री नायर ने स्पष्ट कर दिया कि इससे वहां दंगा हो जाएगा। फिर भी जब नेहरुजी ने जिद की, तो उन्होंने कहा कि पहले आप मुझे यहां से हटा दें, फिर चाहे जो करें। इस पर मुख्यमंत्री ने उन्हें प्रशासनिक सेवा से निलम्बित कर दिया; पर पद छोड़ने से पहले उन्होंने ऐसी व्यवस्था कर दी, जिससे वहां लगातार पूजा होती रहे। उन्होंने सब तथ्यों को भी ठीक से लिखवाया, जिससे आगे चलकर इस मुकदमे में सत्य की जीत हुई।

श्री नायर ने निलम्बन के निर्णय को न्यायालय में चुनौती दी और विजयी हुए; पर शीघ्र ही वे समझ गये कि सरकार उन्हें परेशान करती रहेगी। अतः 1952 में प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र देकर वे प्रयागराज उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे; पर राममंदिर प्रकरण से अयोध्या और आसपास के हिन्दू उन्हें अपना सर्वमान्य नेता मानने लगे। सब लोग उन्हें ‘नायर साहब’ कहते थे। सबने उनसे राममंदिर का संघर्ष न्यायालय के साथ ही संसद में भी करने के लिए राजनीति में आने का आग्रह किया। 

सबके आग्रह पर श्री नायर सपरिवार ‘भारतीय जनसंघ’ के सदस्य बन गये। पहले उनकी पत्नी श्रीमती शकुंतला नायर चुनाव लड़कर उ.प्र. विधानसभा की सदस्य बनीं। 1962 में श्री नायर बहराइच से तथा श्रीमती नायर कैसरगंज से लोकसभा सांसद बनीं। नायर साहब के नाम के कारण उनका कारचालक भी उ.प्र. में विधायक बन गया। उनकी पत्नी तीन बार कैसरगंज से सांसद रहीं। आपातकाल में दोनों इंदिरा गांधी के कोप के शिकार होकर जेल में रहे। सात सितम्बर, 1977 को लखनऊ में श्री नायर का देहांत हुआ। 

श्री नायर केरल के मूल निवासी थे; पर वहां वामपंथी और कांग्रेस सरकारों के कारण उन्हें आदर नहीं मिला। अब विश्व हिन्दू परिषद के प्रयास से वहां ‘के.के.नायर स्मृति न्यास’ गठित कर उनके जन्मग्राम में एक भवन बन रहा है, जहां सेवा कार्यों के साथ ही प्रशासनिक सेवा के इच्छुक युवाओं को प्रशिक्षण दिया जाएगा। श्रीराम मंदिर के लिए लाखों वीरों ने अपनी प्राणाहुति दी है। यद्यपि श्री के.के.नायर का काम अलग प्रकार का था; पर वह भी अविस्मरणीय है। 


(राष्ट्रधर्म, अपै्रल-मई 2020, डा. सर्वेशचंद्र शर्मा तथा अतंरजाल सेवा)
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------
11 सितम्बर/पुण्य-तिथि

नारी चेतना का स्वर महादेवी वर्मा

महान कवियत्री महादेवी वर्मा का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब साहित्य सष्जन के क्षेत्र में पुरुष वर्ग का वर्चस्व था; पर महादेवी ने केवल साहित्य ही नहीं, तो सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र में अपनी सषक्त उपस्थिति से समस्त नारी वर्ग का मस्तक गर्व से उन्नत किया। उन्होंने काव्य, समालोचना, संस्मरण, सम्पादन तथा निबन्ध लेखन के क्षेत्र में प्रचुर कार्य किया। इसके साथ ही वे एक अप्रतिम रेखा चित्रकार भी थीं।

महादेवी वर्मा का जन्म 1907 ई. में होली वाले दिन हुआ था। यदि कोई इस बारे में पूछता, तो वे कहती थीं कि मैं होली पर जन्मी, इसीलिए तो इतना हँसती हूँ। होली सबकी प्रसन्नता का पर्व है, उस दिन सबमें एक नवीन उत्साह रहता है, वैसी सब बातें मुझमें हैं। महादेवी जी की माता जी पूजा-पाठ के प्रति अत्यधिक आग्रही थीं, जबकि पिताजी अंग्रेजी प्रभाव के कारण इनमें विष्वास नहीं करते थे। फिर भी दोनों ने जीवन भर समन्वय बनाये रखा। इसका महादेवी के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा।

महादेवी को जीवन में पग-पग पर अनेक विडम्बनाओं का सामना भी करना पड़ा, फिर भी वे विचलित नहीं हुईं। इनकी चर्चा उन्होंने अपने संस्मरणों में की है। महादेवी हिन्दी की प्राध्यापक थीं; पर उन्होंने अंग्रेजी साहित्य का भी गहन अध्ययन किया था। उनकी इच्छा वेद, पुराण आदि को मूल रूप में समझने की थी। इसके लिए वे अनेक विद्वानों से मिलीं; पर अब्राह्मण तथा महिला होने के कारण कोई उन्हें पढ़ाने को तैयार नहीं हुआ। काषी हिन्दू विष्वविद्यालय ने तो उन्हें किसी पाठ्यक्रम में प्रवेष देना भी उचित नहीं समझा। इसकी पीड़ा महादेवी वर्मा को जीवन भर रही।

महादेवी वर्मा कोमल भावनाओं की संवाहक थीं। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने पहली कविता लिखी थी - आओ प्यारे तारे आओ, मेरे आँगन में बिछ जाओ। रूढ़िवादी परिवार में जन्मी होने के कारण उनका विवाह नौ वर्ष की अवस्था में कर दिया गया; पर उनकी इच्छा पढ़ने और आगे बढ़ने की थी। इसलिए उन्होंने ससुराल की बजाय शिक्षा का मार्ग चुना। 1932 में उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया। इसके बाद वे उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना चाहती थीं; पर गांधी जी ने उन्हें नारी शिक्षा के क्षेत्र में काम करने को प्रेरित किया। अतः उन्होंने प्रयाग में महिला विद्यापीठ महाविद्यालय की स्थापना की, जिसकी वे 1960 में कुलपति नियुक्त हुईं।

महीयसी महादेवी के मन पर गांधी जी का व्यापक प्रभाव था। बापू गुजराती और अंग्रेजी बहुत अच्छी जानते थे, फिर भी वे प्रायः हिन्दी में बोलते थे। महादेवी ने जब इसका कारण पूछा, तो उन्होंने कहा कि हिन्दी भारत राष्ट्र की आत्मा को सहज ढंग से व्यक्त कर सकती है। तब से ही महादेवी वर्मा ने हिन्दी को अपने जीवन का आधार बना लिया। वे महाप्राण निराला को अपना भाई मानकर उन्हें राखी बाँधती थीं। उनके विषाल परिवार में गाय, हिरण, बिल्ली, गिलहरी, खरगोष, कुत्ते आदि के साथ-साथ लता और पुष्प भी थे। अपने संस्मरणों में उन्होंने इन सबकी चर्चा की है।

उन्होंने साहित्यकारों की सहायता के लिए प्रयाग में साहित्यकार संसदबनाई। संवेदनषील होने के कारण बाढ़ आदि प्राकृतिक प्रकोप के समय वे पीड़ितों की खुले दिल से सहायता करती थीं। उनकी बहुचर्चित कृति यामापर उन्हें प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कारदिया गया था। नारी चेतना और संवेदना की इस कवियित्री का स्वर 11 सितम्बर, 1987 को सदा के लिए मौन हो गया।
..................................
11 सितम्बर/इतिहास-स्मृति

राजस्थान में परावर्तन यज्ञ

भारत और उसके निकटवर्ती देशों के मुसलमान या ईसाई उन हिन्दुओं की संतानें हैं, जिन्होंने कभी भय, भूल, लालच या कुछ हिन्दुओं की कूपमंडूकता के कारण धर्म बदल लिया। इन्हें वापस लाने के प्रयासों में विद्यारण्य स्वामी, देवल ऋषि, गुरू नानक, गुरू गोविन्द सिंह, जगद्गुरू रामानंदाचार्य, समर्थ गुरू रामदास, छत्रपति शिवाजी, स्वामी श्रद्धानंद आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

एक बार संघ के द्वितीय सरसंघचालक पूज्य श्री गुरुजी के उदयपुर प्रवास में पाली के जिला संघचालक श्री गोकुलदास जी ने उन्हें बताया कि पाली और अजमेर जिले के गांवों में चीता मेहरात जाति के लाखों लोग रहते हैं, जो पृथ्वीराज चौहान के वशंज हैं। नाम से मुस्लिम होने पर भी उनके रीति-रिवाज हिन्दुओं जैसे ही हैं। 1947 में उनमें से सैकड़ों लोगों ने जोधपुर के तत्कालीन महाराज श्री हनुमत सिंह जी की उपस्थिति में एक विशाल यज्ञ कर पुनः हिन्दू धर्म ग्रहण कर लिया था; पर उसके बाद यह काम आगे नहीं बढ़ पाया।

श्री गुरुजी ने कहा कि इन्हें वापस लाने का प्रयास 'विश्व हिन्दू परिषद' द्वारा होना चाहिए। वहां संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री मोहन जोशी भी उपस्थित थे। उनके मन में जिज्ञासा जगी और वे इस बारे में अध्ययन करने लगे। 1977 में वे विश्व हिन्दू परिषद, राजस्थान के संगठन मंत्री बने। उनके मन में बीजरूप में यह विषय विद्यमान ही था। अतः वे इस दिशा में सक्रिय हो गये। 

पृथ्वीराज चौहान के प्रति उनमें अत्यधिक श्रद्धा भाव देखकर यह विचार हुआ कि पृथ्वीराज जयन्ती के माध्यम से ही उनके बीच में कार्य प्रारम्भ किया जाये। अजमेर, पाली, भीलवाड़ा, राजसमन्द आदि जिलों के लगभग 500 गांवों में संघ तथा विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं ने सम्पर्क प्रारम्भ कर दिया। प्रारम्भ में कुछ कठिनाई आयी; पर उसके बाद आशातीत सफलता मिलने लगी।

वातावरण बनने पर जोधपुर की राजमाता एवं सांसद श्रीमती कृष्णा कुमारी, विहिप के अध्यक्ष महाराणा भगवंत सिंह, ग्वालियर की राजमाता श्रीमंत विजराराजे सिंधिया, पन्ना (म.प्र.) के महाराज श्री नरेन्द्र सिंह जूदेव, जोधपुर के महाराज गजसिंह, भानुपुरा पीठ के शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानंद जी, गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ, रामस्नेही सम्प्रदाय शाहपुरा (राजस्थान) के जगद्गुरू श्री रामकिशोर जी महाराज, जगद्गुरू आश्रम कनखल (हरिद्वार) के महामंडलेश्वर प्रकाशानंद जी महाराज आदि इन कार्यक्रमों में आने लगे। 

कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज तथा मध्वाचार्य जगद्गुरू विश्वेशतीर्थ जी महाराज ने भी अजमेर आकर इस कार्य को आशीर्वाद दिया। संघ के केन्द्रीय अधिकारी श्री मोरोपंत पिंगले, क्षेत्र प्रचारक श्री ब्रह्मदेव जी तथा राजस्थान प्रांत प्रचारक श्री सोहनसिंह जी ने भी इसमें बहुत रुचि ली।

बाबा रामदेव जयन्ती (11 सितम्बर, 1981) को अजमेर के पास खरेकड़ी गांव में पहला विशाल परावर्तन समारोह आयोजित हुआ। सेवानिवृत लेफ्टिनेंट जनरल उमराव सिंह की अध्यक्षता में हुए इस कार्यक्रम में 1,500 मुसलमान स्त्री, पुरुष, बच्चों और बूढों ने अपने पूर्वजों के पवित्र हिन्दू धर्म में वापसी की। तत्कालीन पत्रों ने इसके विस्तृत समाचार एवं श्री मोहन जोशी के साक्षात्कार प्रकाशित किये। मोहन जी ने स्पष्ट किया कि ये लोग पहले हिन्दू ही थे, इसलिए इनका फिर से हिन्दू बनना धर्मान्तरण नहीं, परावर्तन और घर वापसी है।

इसके बाद तो प्रति सप्ताह ऐसे कार्यक्रम होने लगे। इनसे हिन्दुओं में उत्साह का संचार हुआ। राजस्थान के इस अनुभव से लाभ उठाकर आजकल पूरे देश में ऐसे परावर्तन समारोह हो रहे हैं। 
(संदर्भ    : परावर्तन : राष्ट्र रक्षा का महामंत्र - मोहन जोशी)
..................................
11 सितम्बर/पुण्य-तिथि

वरिष्ठ प्रचारक नीलकण्ठ त्रिवेदी
महाराष्ट्र में भंडारा निवासी वरिष्ठ प्रचारक श्री नीलकंठ रामभाऊ त्रिवेदी को सब लोग निलूभाऊके नाम से अधिक जानते थे। उनके पिता श्री रामभाऊ त्रिवेदी संघ के सक्रिय स्वयंसेवक थे। भंडारा का संघ कार्यालय बहुत समय तक उनके घर में ही रहा। अतः वे प्रारम्भ से ही संघ कार्य में रमने लगे।

मैट्रिक तक की शिक्षा पूर्ण कर निलूभाऊ ने बैंक में नौकरी की; पर फिर उन्होंने प्रचारक बनने का निश्चय किया। उन दिनों भंडारा में श्री गोविंदराव कुलकर्णी जिला प्रचारक थे। उन्होंने निलूभाऊ के मन का पक्कापन जांचने के लिए उन्हें भंडारा जिले के तुमसर नामक नये स्थान पर शाखा लगाने को कहा। तुमसर में न रहने की व्यवस्था थी और न खाने की। अतः निलूभाऊ प्रतिदिन भंडारा से वहां जाते और लोगों से मिलकर रात में वापस आ जाते।

धीरे-धीरे वहां उनके कई मित्र बन गये, जिससे फिर भोजन और आवास की समस्या भी हल होने लगी। इस प्रकार तुमसर, तिरोड़ा और उसके आसपास कई स्थानों पर अच्छी शाखाओं की स्थापना हुई। 1970 में उन्हें चंद्रपुर में जिला प्रचारक बनाया गया। उन दिनों साधनों का अभाव था; पर इसकी चिन्ता किये बिना उन्होंने पूरे जिले में पैदल घूम-घूमकर ही नयी शाखाएं खोलीं। निर्धन वर्ग के प्रति प्रेम होने के कारण उन्होंने रिक्शेवाले, कुली तथा अन्य मजदूरों से भी मित्रता कर ली। इनका भी वे संघ कार्य में यथासमय उपयोग कर लेते थे।

निलूभाऊ बहुत साफ और व्यवस्थित ढंग से रहते थे। उनके कपड़ों पर कहीं कोई धब्बा नजर नहीं आता था। इसके बावजूद वे निर्धन और वनवासी परिवारों में जाकर बड़ी मस्ती से धरती पर बैठ जाते थे। यों तो चंद्रपुर के सीरोंचा, गढ़चिरोली आदि वनवासी क्षेत्रों में 1960-61 से ही थोड़ा संपर्क बना हुआ था; पर निलूभाऊ के कार्यकाल में वहां संघ कार्य ने गहरी जड़ें जमा लीं।

1975 में आपातकाल और प्रतिबंध लगने पर चंद्रपुर संघ कार्यालय पर पुलिस ने ताला लगा दिया। अतः वे रात में विद्यार्थी परिषद के कार्यालय में जाकर सोने लगे। एक बार पुलिस वहां भी पहुंच गयी। दरवाजा खोलने वाले ने निलूभाऊ का नाम अवधेश तिवारी बताया। पुलिस अपने एक साथी को वहां छोड़कर लौट गयी। मौका देखकर निलूभाऊ वहां से गायब हो गये।

ऐसी स्थिति में चंद्रपुर में रहना उचित नहीं था। अतः विभाग प्रचारक श्री रामभाऊ बोंडाले ने उन्हें वर्धा भेज दिया। वहां भी वे अवधेश तिवारी के नाम से ही काम करते रहे। आपातकाल के बाद 1978 में उन्हें विदर्भ प्रांत में वनवासी कल्याण आश्रमके काम में लगाया गया। वनवासी क्षेत्र में उनका अच्छा परिचय था ही। अतः वे प्रसन्नता से उस क्षेत्र में काम करने लगे। उन्होंने अनेक सेवा केन्द्र खोले तथा उनके लिए धन का भी प्रबंध किया।

1986 के वर्षाकाल में मोटरसाइकिल से प्रवास करते समय वे एक नाले में जा गिरे। इससे उनके सिर में गंभीर आंतरिक चोट आ गयी। भरपूर इलाज के बाद भी वे पूरी तरह ठीक नहीं हो सके और स्मृतिलोप के शिकार हो गये। अतः उनके रहने की व्यवस्था नागपुर के संघ कार्यालय पर कर दी गयी।

कुछ ठीक होने पर वे कार्यालय के काम में हाथ बंटाने लगे। आवश्यक कागज तैयार कर वे रेलवे स्टेशन पर जाकर आरक्षण आदि करा देते थे। शेष समय वे दत्तोपासना में लगे रहते थे। धीरे-धीरे वे हृदयरोग से भी पीड़ित हो गये। 11 सितम्बर, 2002 को नागपुर में ही उनका देहांत हुआ।
(संदर्भ   : साप्ताहिक विवेक द्वारा प्रकाशित संघ गंगोत्री)
...........................
12 सितम्बर/पुण्य-तिथि

तमिल काव्य में राष्ट्रवादी स्वर सुब्रह्मण्य भारती

भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम से देश का हर क्षेत्र और हर वर्ग अनुप्राणित था। ऐसे में कवि भला कैसे पीछे रह सकते थे। तमिलनाडु में इसका नेतृत्व कर रहे थे सुब्रह्मण्य भारती। यद्यपि उन्हें अनेक संकटों का सामना करना पड़ा; पर उनका स्वर मन्द नहीं हुआ।

सुब्रह्मण्य भारती का जन्म एट्टयपुरम् (तमिलनाडु) में 11 दिसम्बर, 1882 को हुआ था। पाँच वर्ष की अवस्था में ही वे मातृविहीन हो गये। इस दुख को भारती ने अपने काव्य में ढाल लिया। इससे उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी। स्थानीय सामन्त के दरबार में उनका सम्मान हुआ और उन्हें भारतीकी उपाधि दी गयी। 11 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह कर दिया गया। अगले साल पिताजी भी चल बसे। अब भारती पढ़ने के उद्देश्य से अपनी बुआ के पास काशी आ गये।

चार साल के काशीवास में भारती ने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया। अंग्रेजी कवि शेली से वे विषेष प्रभावित थे। उन्होेंने एट्टयपुरम् में शेलियन गिल्डनामक संस्था भी बनाई। तथा शेलीदासन्उपनाम से अनेक रचनाएँ लिखीं। काशी में ही उन्हें राष्ट्रीय चेतना की शिक्षा मिली, जो आगे चलकर उनके काव्य का मुख्य स्वर बन गयी। काशी में उनका सम्पर्क भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा निर्मित हरिश्चन्द्र मण्डलसे रहा।

काशी में उन्होंने कुछ समय एक विद्यालय में अध्यापन किया। वहाँ उनका सम्पर्क श्रीमती डा. एनी बेसेण्ट से हुआ; पर वे उनके विचारों से पूर्णतः सहमत नहीं थे। एक बार उन्होेंने अपने आवास शैव मठ में महापण्डित सीताराम शास्त्री की अध्यक्षता में सरस्वती पूजा का आयोजन किया। भारती ने अपने भाषण में नारी शिक्षा, समाज सुधार, विदेशी का बहिष्कार और स्वभाषा की उन्नति पर जोर दिया। अध्यक्ष महोदय ने इसका प्रतिवाद किया। फलतः बहस होने लगी और अन्ततः सभा विसर्जित करनी पड़ी।

भारती का प्रिय गान बंकिम चन्द्र का वन्दे मातरम् था। 1905 में काशी में हुए कांग्रेस अधिवेशन में सुप्रसिद्ध गायिका सरला देवी ने यह गीत गाया। भारती भी उस अधिवेशन में थे। बस तभी से यह गान उनका जीवन प्राण बन गया। मद्रास लौटकर भारती ने उस गीत का उसी लय में तमिल में पद्यानुवाद किया, जो आगे चलकर तमिलनाडु के घर-घर में गूँज उठा।

सुब्रह्मण्य भारती ने जहाँ गद्य और पद्य की लगभग 400 रचनाओं का सृजन किया, वहाँ उन्होंने स्वदेश मित्रम, चक्रवर्तिनी, इण्डिया, सूर्योदयम, कर्मयोगी आदि तमिल पत्रों तथा बाल भारत नामक अंग्रेजी साप्ताहिक के सम्पादन में भी सहयोग किया। अंग्रेज शासन के विरुद्ध स्वराज्य सभा के आयोजन के लिए भारती को जेल जाना पड़ा। कोलकाता जाकर उन्होंने बम बनाना, पिस्तौल चलाना और गुरिल्ला युद्ध का भी प्रशिक्षण लिया। वे गरम दल के नेता लोकमान्य तिलक के सम्पर्क में भी रहे।

भारती ने नानासाहब पेशवा को मद्रास में छिपाकर रखा। शासन की नजर से बचने के लिए वे पाण्डिचेरी आ गये और वहाँ से स्वराज्य साधना करते रहे। निर्धन छात्रों को वे अपनी आय से सहयोग करते थे। 1917 में वे गान्धी जी के सम्पर्क में आये और 1920 के असहयोग आन्दोलन में भी सहभागी हुए। स्वराज्य, स्वभाषा तथा स्वदेशी के प्रबल समर्थक इस राष्ट्रप्रेमी कवि का 12 सितम्बर, 1921 को मद्रास में देहान्त हुआ।
................................
12 सितम्बर/पुण्य-तिथि

अनुशासन एवं व्यवस्था प्रिय डा. रामकुमार जी

संघ के जीवनव्रती प्रचारक डा. रामकुमार जी का जन्म 1928 ई. में ग्राम बिलन्दापुर (कन्नौज, उ.प्र.) में हुआ था। उनके पिता श्री गंगाप्रसाद कटियार तथा माता श्रीमती रामदुलारी थीं। उनकी शिक्षा अपने गांव बिलन्दापुर तथा फिर निकटवर्ती ठठिया, तिर्वा और कन्नौज में हुई। संस्कृत तथा आयुर्वेद के प्रति रुझान होने के कारण इसके बाद वे हरिद्वार आ गये। 1950 में श्री गुरुकुल आयुर्वेद संस्थान से उन्होंने बी.एम.एस. की उपाधि प्राप्त की।

छात्र जीवन में ही उनका सम्पर्क संघ से हो गया था। संघ के प्रखर विचार, रोचक कार्यक्रम और कार्यकर्ताओं के व्यवहार से प्रभावित होकर क्रमशः उनका झुकाव संघ की ओर बढ़ता चला गया। तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण पूरा कर 1958-59 में वे प्रचारक बन गये।

रामकुमार जी हमीरपुर, उन्नाव, जौनपुर आदि में जिला प्रचारक रहे। आपातकाल के समय उन्हें लखनऊ महानगर का काम दिया गया। उस समय प्रचारकों को भूमिगत रहकर जन जागरण करने का आदेश था। अतः वे लखनऊ में संगठन की गतिविधियों में संलग्न रहे; पर पुलिस की नजरों में आ जाने के कारण उन्हें तीन महीने जेल में भी रहना पड़ा। आपातकाल समाप्ति के बाद वे गोंडा और फिर झांसी में विभाग प्रचारक रहे।

रामकुमार जी के कुछ वर्ष बड़े कष्ट में बीते। उनके सिर पर थोड़ी सी हवा लगने से भी भयानक सिर दर्द होने लगता था। इतना ही नहीं, तो उनकी गर्दन भी काफी समय तक जाम रही। उसे दायें-बायें हिलाने से भी बहुत दर्द होता था। वे भोजन भी बड़ी कठिनाई से कर पाते थे। चिकित्सक होने के बावजूद वे स्वयं और लखनऊ के चिकित्सक भी इस रोग को नहीं पकड़ सके। अंततः दिल्ली में एक चिकित्सक ने एक्यूपंक्चर के माध्यम से सिर की किसी नस को ठीक किया। तब जाकर उन्हें इस कष्ट से मुक्ति मिली।

रामकुमार जी चूंकि स्वयं बालपन में ही स्वयंसेवक बने थे, अतः उन्हें बच्चों के बीच काम करने में बहुत आनंद आता था। बच्चे भी उनके पास बैठकर कहानी तथा प्रेरक प्रसंग सुनना पसंद करते थे। उनकी मान्यता थी कि बालपन में पड़े हुए संस्कार जीवन भर अमिट रहते हैं। अतः वे सब कार्यकर्ताओं से बाल शाखा पर ध्यान देने का बहुत आग्रह करते थे। उनका हस्तलेख भी मोतियों जैसा था। अतः उनके पत्रों को लोग वर्षों तक संभाल कर रखते थे।

उनके जीवन में अनुशासन और व्यवस्था सर्वत्र दिखाई देती थी। वर्षों तक वे संघ शिक्षा वर्ग में प्रथम और फिर द्वितीय वर्ष के शारीरिक प्रमुख रहे। कुछ समय उन पर 'सेवा भारती' का काम भी रहा। फिर उन्हें अवध प्रान्त का बौद्धिक प्रमुख बनाया गया। इस दौरान उन्होंने बहुत व्यवस्थित बौद्धिक पुस्तिकाएं बनाईं, जिनसे स्वयंसेवकों और शाखा के कार्यक्रमों की गुणवत्ता में सुधार हुआ।

उन्होंने सैकड़ों महामानवों का संक्षिप्त जीवन परिचय देने वाली पुस्तक पुण्य प्रवाह हमाराभी लिखी। इसे लखनऊ के लोकहित प्रकाशन ने तीन खंड में प्रकाशित किया है। शाखा में प्रार्थना, सुभाषित, अमृत वचन आदि नियमित तथा सही उच्चारण के साथ हो, इस पर वे बहुत ध्यान देते थे।

रामकुमार जी भारती भवन, लखनऊ में रहते थे। कार्यालय की दिनचर्या का वे कड़ाई से पालन करते थे। एक दिन जब वे दोपहर भोजन और फिर शाम की चाय पर नहीं पहुंचे, तो सबको आश्चर्य हुआ। उनके कक्ष में जाकर देखा, तो उन्हें पक्षाघात हो चुका था। तुरंत उन्हें चिकित्सालय में भर्ती कराया गया, जहां अगले दिन 12 सितम्बर, 2000 को उनका प्राणांत हो गया। 
(संदर्भ : श्री विजय कनौजिया एवं श्री वीरेश्वर द्विवेदी)
...................................
13 सितम्बर/बलिदान-दिवस

अनशनव्रती यतीन्द्रनाथ दास

यतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्तूबर, 1904 को कोलकाता में हुआ था। 16 वर्ष की अवस्था में ही वे असहयोग आंदोलन में दो बार जेल गये थे। इसके बाद वे क्रांतिकारी दल में शामिल हो गये। शचीन्द्रनाथ सान्याल से उन्होंने बम बनाना सीखा। 1928 में वे फिर पकड़ लियेे गये। वहां जेल अधिकारी द्वारा दुर्व्यवहार करने पर ये उससे भिड़ गये। इस पर इन्हें बहुत निर्ममता से पीटा गया। इसके विरोध में इन्होंने 23 दिन तक भूख हड़ताल की तथा जेल अधिकारी द्वारा क्षमा मांगने पर ही अन्न ग्रहण किया।

क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न रहने के कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। हर बार वे बंदियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे। लाहौर षड्यंत्र केस में वे छठी बार गिरफ्तार हुए। उन दिनों जेल में क्रांतिवीरों से बहुत दुर्व्यवहार होता था। उन्हें न खाना ठीक मिलता था और न वस्त्र, जबकि सत्याग्रहियों को राजनीतिक बंदी मान कर सब सुविधा दी जाती थीं। जेल अधिकारी क्रांतिकारियों से प्रायः मारपीट भी करते थे। इसके विरोध में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त आदि ने लाहौर के केन्द्रीय कारागार में भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी।

जब इन अनशनकारियों की हालत खराब होने लगी, तो इनके समर्थन में बाकी क्रांतिकारियों ने भी अनशन प्रारम्भ करने का विचार किया। अनेक लोग इसके लिए उतावले हो रहे थेे। जब सबने यतीन्द्र की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मैं अनशन तभी करूंगा, जब मुझे कोई इससे पीछे हटने को नहीं कहेगा। मेरे अनशन का अर्थ है विजय या मृत्यु।

यतीन्द्रनाथ का मत था कि संघर्ष करते हुए गोली खाकर या फांसी पर झूलकर मरना आसान है। क्योंकि उसमें अधिक समय नहीं लगता; पर अनशन में व्यक्ति क्रमशः मृत्यु की ओर आगे बढ़ता है। ऐसे में यदि उसका मनोबल कम हो, तो संगठन के व्यापक उद्देश्य को हानि होती है।

यतीन्द्रनाथ का मनोबल बहुत ऊंचा था। अतः उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन प्रारम्भ कर दिया। जेल में यों तो बहुत खराब खाना दिया जाता था; पर अब जेल अधिकारी स्वादिष्ट भोजन, मिष्ठान और केसरिया दूध आदि उनके कमरों में रखने लगे। सब क्रांतिकारी यह सामग्री फेंक देते थे; पर यतीन्द्र कमरे में रखे होने पर भी इन्हें छूते तक नहीं थे।

अब जेल अधिकारियों ने जबरन अनशन तुड़वाने का निश्चय किया। वे बंदियों के हाथ पैर पकड़कर, नाक में रबड़ की नली घुसेड़कर पेट में दूध डाल देते थे। जब यतीन्द्र के साथ ऐसा किया गया, तो वे जोर से खांसने लगे। इससे दूध उनके फेफड़ों में चला गया और उनकी हालत बहुत बिगड़ गयी।

यह देखकर जेल प्रशासन ने उनके छोटे भाई किरणचंद्र दास को उनकी देखरेख के लिए बुला लिया; पर यतीन्द्रनाथ दास ने उसे इसी शर्त पर अपने साथ रहने की अनुमति दी कि वह उनके संकल्प में बाधक नहीं बनेगा। इतना ही नहीं, यदि उनकी बेहोशी की अवस्था में जेल अधिकारी कोई खाद्य सामग्री, दवा या इंजैक्शन देना चाहें, तो वह ऐसा नहीं होने देगा।

13 सितम्बर, 1929 को अनशन का 63वां दिन था। आज यतीन्द्र के चेहरे पर विशेष प्रकार की मुस्कान थी। उन्होंने सब मित्रों को अपने पास बुलाया। छोटे भाई किरण ने उनका मस्तक अपनी गोद में ले लिया। विजय सिन्हा ने यतीन्द्र का प्रिय गीत एकला चलो रेऔर फिर वन्दे मातरम्गाया। गीत पूरा होते ही संकल्प के धनी यतीन्द्रनाथ दास का सिर एक ओर लुढ़क गया। 
(संदर्भ  : स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश/क्रांतिकारी कोश)
.................................................................
14 सितम्बर/बलिदान-दिवस

लाला जयदयाल का बलिदान

1857 में जहाँ एक ओर स्वतन्त्रता के दीवाने सिर हाथ पर लिये घूम रहे थे, वहीं कुछ लोग अंग्रेजों की चमचागीरी और भारत माता से गद्दारी को ही अपना धर्म मानते थे। कोटा (राजस्थान) के शासक महाराव अंग्रेजों के समर्थक थे। पूरे देश में क्रान्ति की चिनगारियाँ 10 मई के बाद फैल गयीं थी; पर कोटा में यह आग अक्तूबर में भड़की।

महाराव ने एक ओर तो देशप्रेमियों को बहकाया कि वे स्वयं कोटा से अंग्रेजों को भगा देंगे, तो दूसरी ओर नीमच छावनी में मेजर बर्टन को समाचार भेज कर सेना बुलवा ली। अंग्रेजों के आने का समाचार जब कोटा के सैनिकों को मिला, तो वे भड़क उठे। उन्होंने एक गुप्त बैठक की और विद्रोह के लिए लाला हरदयाल को सेनापति घोषित कर दिया।

लाला हरदयाल महाराव की सेना में अधिकारी थे, जबकि उनके बड़े भाई लाला जयदयाल दरबार में वकील थे। जब देशभक्त सैनिकों की तैयारी पूरी हो गयी, तो उन्होंने अविलम्ब संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। 16 अक्तूबर को कोटा पर क्रान्तिवीरों का कब्जा हो गया। लाला हरदयाल गम्भीर रूप से घायल हुए। महाराव को गिरफ्तार कर लिया गया और मेजर बर्टन के दो बेटे मारे गये। महाराव ने फिर चाल चली और सैनिकों को विश्वास दिलाया कि वे सदा उनके साथ रहेंगे। इसी के साथ उन्होंने मेजर बर्टन और अन्य अंग्रेज परिवारों को भी सुरक्षित नीमच छावनी भिजवा दिया।

छह माह तक कोटा में लाला जयदयाल ने सत्ता का संचालन भली प्रकार किया; पर महाराव भी चुप नहीं थे। उन्होंने कुछ सैनिकों को अपनी ओर मिला लिया, जिनमें लाला जयदयाल का रिश्तेदार वीरभान भी था। निकट सम्बन्धी होने के कारण जयदयाल जी उस पर बहुत विश्वास करते थे।

इसी बीच महाराव के निमन्त्रण पर मार्च 1858 में अंग्रेज सैनिकों ने कोटा को घेर लिया। देशभक्त सेना का नेतृत्व लाला जयदयाल, तो अंग्रेज सेना का नेतृत्व जनरल राबर्टसन के हाथ में था। इस संघर्ष में लाला हरदयाल को वीरगति प्राप्त हुई। बाहर से अंग्रेज तो अन्दर से महाराव के भाड़े के सैनिक तोड़फोड़ कर रहे थे। जब लाला जयदयाल को लगा कि अब बाजी हाथ से निकल रही है, तो वे अपने विश्वस्त सैनिकों के साथ कालपी आ गये।

तब तक सम्पूर्ण देश में 1857 की क्रान्ति का नक्शा बदल चुका था। अनुशासनहीनता और अति उत्साह के कारण योजना समय से पहले फूट गयी और अन्ततः विफल हो गयी। लाला जयदयाल अपने सैनिकों के साथ बीकानेर आ गये। यहाँ उन्होंने सबको विदा कर दिया और स्वयं संन्यासी होकर जीने का निर्णय लिया। 

देशद्रोही वीरभान इस समय भी उनके साथ लगा हुआ था। उसके व्यवहार से कभी लाला जी को शंका नहीं हुई। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने वाले को दस हजार रु. इनाम की घोषणा कर रखी थी।
वीरभान हर सूचना महाराव तक पहुँचा रहा था। उसने लाला जी को जयपुर चलने का सुझाव दिया। 15 अपै्रल, 1858 को जब लाला जी बैराठ गाँव में थे, तो उन्हें पकड़ लिया गया। अदालत में उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और फिर 14 सितम्बर, 1858 को उन्हें कोटा के रिजेन्सी हाउस में फाँसी दे दी गयी। 

इस प्रकार मातृभूमि की बलिवेदी पर दोनों भाइयों ने अपने शीश अर्पित कर दिये। गद्दार वीरभान को शासन ने दस हजार रुपये के साथ कोटा रियासत के अन्दर एक जागीर भी दी।
....................................
14 सितम्बर/जन्म-दिवस

वनवासियों के मित्र मोरुभाऊ केतकर
इस समय वनवासी कल्याण आश्रम का काम देश के हर वनवासी जिले में विद्यमान है। उसके माध्यम से हजारों विद्यालय और छात्रावास चल रहे हैं; पर जब यह काम प्रारम्भ हुआ, तब अनेक कठिनाइयां थीं। उन सबमें धैर्य, परिश्रम और सूझबूझ से इस नये काम को खड़ा करने में श्री बालासाहब देशपांडे के साथ मोरुभाऊ केतकर ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

मोरुभाऊ केतकर का जन्म 14 सितम्बर, 1914 को नागपुर में हुआ था। उस दिन पूरे नगर में गणेश चतुर्थी पर्व उत्साह से मनाया जा रहा था। उनके पिता श्री हरिभाऊ खापरी रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे। पांच भाई और दो बहिनों वाला यह भरापूरा परिवार था। जब 1925 में डा. हेडगेवार ने संघ की स्थापना की, उसके कुछ समय बाद एक बैठक में मोरुभाऊ भी शामिल हुए थे। इसके बाद उनका स्वयंसेवक जीवन प्रारम्भ हो गया। इस प्रकार संघ के प्रारम्भ काल से ही उनका डा. हेडगेवार से निकट सम्बन्ध था।

1932 में बनारस बोर्ड से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने ब्रुक बांड चाय कम्पनी में नौकरी कर ली। चाय बेचने के लिए उन्हें नागपुर, छिंदवाड़ा, जबलपुर, बालाघाट, सिवनी आदि में बार-बार जाना पड़ता था। कुछ ही समय में वे इससे ऊब गये। अतः 1943 में उन्होंने नौकरी छोड़कर प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया। सर्वप्रथम उन्हें रायपुर विभाग का काम दिया गया। इसमें रायपुर, बिलासपुर, बोलांगीर, संबलपुर आदि जिले शामिल थे। 1945 में उन्हें निमाड़ तथा 1947 में जबलपुर विभाग प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी।
1948 के प्रतिबंध के समय मोरुभाऊ तीन मास जेल में रहे। प्रतिबंध समाप्ति के बाद वातावरण में बड़ी हताशा व्याप्त थी। कई कार्यकर्ताओं की नौकरी छूट गयी थी। कई प्रचारक भी वापस लौट गये थे; पर मोरुभाऊ केतकर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1950 में उन्हें खंडवा, होशंगाबाद व बैतूल जिले का काम दिया गया। उन्होंने निराश न होते हुए नये सिरे से काम खड़ा किया।

उन्हीं दिनों ठक्कर बापा के प्रयत्नों से जशपुर के वनवासी क्षेत्र में काम प्रारम्भ हुआ था। संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री बालासाहब देशपांडे भी उसमें सहयोग कर रहे थे। शासन इससे राजनीतिक लाभ उठाना चाहता था; पर यह बालासाहब को पसंद नहीं था। ठक्कर बापा के देहांत के बाद बालासाहब ने श्री गुरुजी से बात कर वनवासी कल्याण आश्रमके नाम से स्वतन्त्र काम खड़ा करने का सुझाव दिया। श्री गुरुजी इससे सहमत हुए और उन्होंने मोरुभाऊ केतकर को बालासाहब के साथ वनवासी क्षेत्र में काम करने को कहा।

इस प्रकार मोरुभाऊ केतकर के जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। 19 नवम्बर, 1952 को वे जशपुर पहुंचे। वहां के महाराज विजयभूषण सिंह ने उनके काम में पूर्ण सहयोग दिया। उन्होंने वहां वनवासी बालकों और बालिकाओं के लिए अलग-अलग छात्रावास प्रारम्भ किये। वनवासी कल्याण आश्रम के वर्तमान अध्यक्ष श्री जगदेव राम उरांव इस छात्रावास की देन हैं।

12 वर्ष वहां रहकर तथा वहां के काम को एक सुदृढ़ आधार प्रदान कर मोरुभाऊ केतकर ने जशपुर से 150 कि.मी की दूर बगीचा नामक स्थान पर एक नया छात्रावास प्रारम्भ किया। इस जीतोड़ परिश्रम से उनका शरीर थक गया और नौ जून, 1993 को वे स्थायी विश्रान्ति पर चले गये।
(संदर्भ  : साप्ताहिक विवेक, मुंबई द्वारा प्रकाशित पुस्तक संघ गंगोत्री)
............................
14 सितम्बर/जन्म-दिवस

तर्कपूर्ण व्यक्तित्व कौशल किशोर जी

किसी भी बालक के जीवन में उसकी मां का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री कौशल किशोर जी के साथ यह बात कुछ दूसरी तरह से घटित हुई। उनका जन्म 14 सितम्बर, 1928 को रायबरेली (उ.प्र.) में हुआ था। वहां के जिलाधिकारी के पेशकार बाबू श्रीलाल सहाय निःसंतान थे। संयोग से उनके रिश्तेदारी में एक महिला बालक को जन्म देने के तुरंत बाद चल बसी। इस पर श्रीलाल जी उसे अपने घर ले आये। उनकी पत्नी श्रीमती दिलराजी ने उस बालक को अपना दूध पिलाकर पाला; पर छह वर्ष बाद वे भी परलोक सिधार गयीं। इस पर श्रीलाल जी ने पुनर्विवाह किया और फिर बालक कौशल किशोर का पालन तीसरी मां के सान्निध्य में हुआ।

संघ से उनका सम्पर्क बाल्यकाल में ही हो गया था। 1946 में कक्षा 12 उत्तीर्ण कर वे प्रचारक बन गये। सर्वप्रथम उन्हें रायबरेली की लालगंज तहसील में भेजा गया। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध के समय अनेक प्रचारक वापस लौट गये; पर कौशल जी डटे रहे। प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद उन्हें प्रतापगढ़ में जिला प्रचारक बनाया गया। इसके बाद वे हरदोई, मेरठ आदि में प्रचारक रहे। मेरठ में रहते समय उन्होंने बी.ए. और एम.ए. की परीक्षा भी उत्तीर्ण की।

उ.प्र. में अनेक स्थानों पर जिला, विभाग प्रचारक आदि कार्य करने के बाद 1971 में उन्हें उ.प्र. जनसंघ का संगठन मंत्री बनाया गया। 1975 में आपातकाल लगने के बाद वे भी भूमिगत रहकर जन जागरण के काम में लगे रहे। उन दिनों वे बुलन्दशहर जिले में पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया। उनकी जेब में कई छोटे-छोटे कागजों पर आवश्यक पते और फोन नंबर लिखे थे। कौशल जी ने समय पाकर उन सब कागजों को चुपचाप खा लिया। बाद में जब तलाशी हुई, तो पुलिस के हाथ कुछ नहीं लगा। इस पर भी उन्हें मीसा में बंद कर दिया, जहां से वे प्रतिबन्ध और आपातकाल की समाप्ति के बाद ही छूट सके।

आपातकाल के बाद सभी विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया। कौशल जी उ.प्र. में इसके महामंत्री बनाये गये; पर यह अनेक स्वार्थी नेताओं और दलों का कुनबा था। वहां संघ के प्रचारक के लिए भला क्या जगह हो सकती थी ? 1980 में यह कुनबा टूट गया और इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आ गयीं। कौशल जी का मन भी इस उठापटक से ऊब चुका था। अतः उन्होंने फिर से संघ का काम करने की इच्छा व्यक्त की।

इस पर उन्हें जम्मू संभाग, फिर दिल्ली सह प्रांत प्रचारक, प्रांत प्रचारक और फिर अ.भा.सह बौद्धिक प्रमुख बनाया गया। उन्हीं दिनों संघ में संपर्क विभाग का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य ऐसे लोगों को संघ से जोड़ना था, जो भले ही शाखा न जाते हों; पर चरित्रवान और प्रभावी होने के नाते समाज में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा है। कौशल जी को इस विभाग का काम दिया गया। पूरे देश में व्यापक प्रवास कर उन्होंने इसका सुदृढ़ तंत्र खड़ा किया।

कौशल जी की सबसे बड़ी विशेषता उनकी वार्तालाप शैली थी। भाषण और बैठक हो या व्यक्तिगत वार्ता; वे बात को बहुत तर्क एवं तथ्यपूर्ण ढंग से रखते थे। इससे नये व्यक्ति और कार्यकर्ता बहुत प्रभावित होते थे। लगातार प्रवास व परिश्रम के कारण जब वे अनेेक रोगों से पीड़ित हो गये, तो 1998 में उन्हें दायित्व से मुक्त कर दिया गया।

27 अगस्त, 2003 को हुए भीषण मस्तिष्क आघात से लखनऊ के अस्पताल में उनका देहांत हुआ। उनकी माता जी की इच्छानुसार उनका अंतिम संस्कार रायबरेली के निकट डलमऊ के गंगाघाट पर किया गया।
...........................
15 सितम्बर/जन्म-दिवस

शीर्षस्थ पुरातत्ववेत्ता डा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा

इतिहास और पुरातत्व के शीर्षस्थ विद्वान डा. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा की गिनती प्रमुख इतिहासकारों में होती है। जिन दिनों सब ओर भारतीय इतिहास को अंग्रेजी चश्मे से ही देखने का प्रचलन था, उन दिनों उन्होंने अपने शोध के बल पर राजस्थान का सही इतिहास विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया।

गौरीशंकर जी का जन्म 15 सितम्बर, 1863 को ग्राम रोहिडा  (सिरोही, राजस्थान) में हुआ था। इनके पूर्वज मेवाड़ के निवासी थे; पर लगभग 225 वर्ष पूर्व वे इस गाँव में आकर बस गये थे। इनके पिता का नाम पण्डित हीराचन्द ओझा था। सात साल की अवस्था में इन्हें हिन्दी पढ़ायी गयी। यज्ञोपवीत संस्कार होने के बाद इन्होंने गणित, संस्कृत और वेदों का अध्ययन किया। शुक्ल यजुर्वेद की सम्पूर्ण संहिता इन्हें कण्ठस्थ हो गयी थी।

14 वर्ष की अवस्था में इन्होंने मुम्बई के एल्फिंस्टन हाई स्कूल में प्रवेश लिया और वहाँ से 1884 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। पण्डित गट्टलाल जी से इन्होंने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का विशेष ज्ञान प्राप्त किया। 1886 में उच्च शिक्षा के लिए इन्होंने विल्सन कॉलेज में प्रवेश लिया; पर स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण अपने गाँव लौट गये।

अध्ययन के दौरान उन्होंने पाया कि इतिहास के लिए सबको अंग्रेज लेखकों की पुस्तकें ही पढ़नी पड़ती हैं। अंग्रेजों ने जानबूझ कर इतिहास इस प्रकार लिखा था, जिससे भारतीयों के मन में अपने पूर्वजों के प्रति घृणा उत्पन्न हो। इससे गौरीशंकर जी के मन को बहुत चोट लगी। उन्होंने स्वयं इस क्षेत्र में काम करने का निश्चय किया। इसलिए दो साल बाद वे फिर मुम्बई आ गये और प्राचीन लिपियों तथा ग्रन्थों के अध्ययन में जुट गये।

1888 ई. में इनकी भेंट कविराज श्यामलदास से हुई। उनके ज्ञान एवं गुणों से प्रभावित होेकर उन्होंने गौरीशंकर जी को अपने इतिहास कार्यालय में मन्त्री नियुक्त कर लिया। यहाँ रहकर उनका पूरा समय राजस्थान के इतिहास के अध्ययन में बीतने लगा। 1890 में वे विक्टोरिया हॉल  स्थित म्यूजियम लाइब्रेरी तथा फिर अजमेर के सरकारी म्यूजियम के भी अध्यक्ष बने।

1893 में गौरीशंकर जी ने प्राचीन लिपिमालानामक पुस्तक लिखी। यह आज भी प्राचीन लिपियों के अध्ययन में छात्रों को ठोस सामग्री उपलब्ध कराती है। 1902 में उन्होंने कर्नल टाड का जीवन चरित्र लिखा। राजस्थान के बारे में कर्नल टाड के ग्रन्थों को ही अधिकृत माना जाता है; पर उसकी दृष्टि शुद्ध नहीं थी। उसकी कपोल कल्पनाओं का तार्किक खण्डन करते हुए गौरीशंकर जी ने स्पष्ट टिप्पणियाँ कीं। 

प्रारम्भ में इस ओर विद्वानों ने ध्यान नहीं दिया; पर फिर सबको उनकी बात माननी पड़ी। इसके बाद उन्होंने ऐतिहासिक ग्रन्थमालालिखी तथा पृथ्वीराज विजयनामक काव्य ग्रन्थ का सम्पादन किया। उनके प्रयासों से शौर्य और बलिदान की भूमि राजस्थान के वे गौरवपूर्ण प्रसंग प्रकाश में आये, जिन्हें अंग्रेजों ने जानबूझ कर छिपाया था।

डा. ओझा की पुस्तकों ने इतिहास के क्षेत्र में हलचल मचा दी। इनकी विशेषता यह थी कि वे निबन्ध शैली में लिखी गयी हैं। इसलिए उन्हें पढ़ते हुए रोचकता बनी रहती है। उनकी अन्य प्रमुख पुस्तकें हैं - ओझा निबन्ध संग्रह, नागरी अंक और अक्षर, मध्यकालीन भारतीय संस्कृति, मुँहणीत नेणासी की ख्यात, महाराणा प्रताप सिंह: ऐतिहासिक जीवनी, सिरोही राज्य का इतिहास।
..............................
15 सितम्बर/जन्म-दिवस

आधुनिक विश्वकर्मा विश्वेश्वरैया

आधुनिक भारत के विश्वकर्मा श्री मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया का जन्म 15 सितम्बर, 1861 को कर्नाटक के मैसूर जिले में मुदेनाहल्ली ग्राम में पण्डित श्रीनिवास शास्त्री के घर हुआ था। निर्धनता के कारण विश्वेश्वरैया ने घर पर रहकर ही अपने परिश्रम से प्राथमिक स्तर की पढ़ाई की।

जब ये 15 वर्ष के थे, तब इनके पिता का देहान्त हो गया। इस पर ये अपने एक सम्बन्धी के घर बंगलौर आ गये। घर छोटा होने के कारण ये रात को मन्दिर में सोते थे। कुछ छात्रों को ट्यूशन पढ़ाकर इन्होंने पढ़ाई का खर्च निकाला। मैट्रिक और बी.ए. के बाद इन्होंने मुम्बई विश्वविद्यालय से अभियन्ता की परीक्षा सर्वोच्च स्थान लेकर उत्तीर्ण की। इस पर इन्हें तुरन्त ही सहायक अभियन्ता की नौकरी मिल गयी।

उन दिनों प्रमुख स्थानों पर अंग्रेज अभियन्ता ही रखे जाते थे। भारतीयों को उनका सहायक बनकर ही काम करना पड़ता था; पर विश्वेश्वरैया ने हिम्मत नहीं हारी। प्रारम्भ में इन्हें पूना जिले की सिंचाई व्यवस्था सुधारने की जिम्मेदारी मिली। इन्होंने वहाँ बने पुराने बाँध में स्वचालित फाटक लगाकर ऐसे सुधार किये कि अंग्रेज अधिकारी भी इनकी बुद्धि का लोहा मान गये। ऐसे ही फाटक आगे चलकर ग्वालियर और मैसूर में भी लगाये गये।

कुछ समय के लिए नौकरी से त्यागपत्र देकर श्री विश्वेश्वरैया विदेश भ्रमण के लिए चले गये। वहाँ उन्होंने नयी तकनीकों का अध्ययन किया। वहाँ से लौटकर 1909 में उन्होंने हैदराबाद में बाढ़ से बचाव की योजना बनायी। इसे पूरा करते ही उन्हें मैसूर राज्य का मुख्य अभियन्ता बना दिया गया। उनके काम से प्रभावित होकर मैसूर नरेश ने उन्हें राज्य का मुख्य दीवान बना दिया। यद्यपि उनका प्रशासन से कभी सम्बन्ध नहीं रहा था; पर इस पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक जनहित के काम किये। इस कारण वे नये मैसूर के निर्माता कहे जाते हैं। मैसूर भ्रमण पर जाने वाले 'वृन्दावन गार्डन' अवश्य जाते हैं। यह योजना भी उनके मस्तिष्क की ही उपज थी

विश्वेश्वरैया ने सिंचाई के लिए कृष्णराज सागर और लौह उत्पादन के लिए भद्रावती का इस्पात कारखाना बनवाया।मैसूर विश्वविद्यालय तथा बैंक ऑफ़ मैसूर की स्थापना भी उन्हीं के प्रयासों से हुई। वे बहुत अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। वे एक मिनट भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। वे किसी कार्यक्रम में समय से पहले या देर से नहीं पहुँचते थे। वे अपने पास सदा एक नोटबुक और लेखनी रखते थे। जैसे ही वे कोई नयी बात वे देखते या कोई नया विचार उन्हें सूझता, वे उसे तुरन्त लिख लेते।

विश्वेश्वरैया निडर देशभक्त भी थे। मैसूर का दशहरा प्रसिद्ध है। उस समय होने वाले दरबार में अंग्रेज अतिथियों को कुर्सियों पर बैठाया जाता था, जबकि भारतीय धरती पर बैठते थे। विश्वेश्वरैया ने इस व्यवस्था को बदलकर सबके लिए कुर्सियाँ लगवायीं। उनकी सेवाओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए शासन ने 1955 में उन्हें भारत रत्नसे सम्मानित किया।

शतायु होने पर उन पर डाक टिकट जारी किया गया। जब उनके दीर्घ एवं सफल जीवन का रहस्य पूछा गया, तो उन्होंने कहा - मैं हर काम समय पर करता हूँ। समय पर खाता, सोता और व्यायाम करता हूँ। मैं क्रोध से भी सदा दूर रहता हूँ। 101 वर्ष की आयु में 14 अप्रैल, 1962 को उनका देहान्त हुआ।
.......................................
15 सितम्बर/जन्म-दिवस

प्रखर पत्रकार रूसी करंजिया

पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतिष्ठा वही पाते हैं, जो भयभीत हुए बिना अपने सिद्धान्तों के पक्ष में खड़े रहें। रूसी करंजिया लम्बे समय तक वामपन्थ के समर्थक रहे; पर उसका खोखलापन समझ आने पर वे उसके प्रबल विरोधी भी हो गये। 

मुम्बई में 15 सितम्बर, 1912 को एक पारसी परिवार में जन्मे रूसी खुरशेदजी करंजिया ने पत्रकारिता का प्रारम्भ टाइम्स ऑफ़ इण्डियासे किया। उसमें उनकी टिप्पणियों की सर्वत्र सराहना होती थी। खोजी पत्रकारिता की ओर रुझान होने पर उन्होंने व्यवस्था को चोट पहुँचानेवाले हर समाचार को ढूँढकर प्रकाशित करने के लिए अंग्रेजी में एक फरवरी, 1941 से ब्लिट्जसमाचार पत्र प्रारम्भ किया। थोड़े ही समय में ब्लिट्ज ने अपनी पहचान बना ली।

उस समय देश में नेहरूवाद अर्थात् वामपन्थ और रूस समर्थन की लहर बह रही थी। नेहरूवादी होते हुए भी वे शासन की कमियों और विफलताओं को सामने लाये। ब्लिट्जका अर्थ ही है आक्रमण या चढ़ाई। श्री करंजिया ने अपने पत्र की ऐसी ही प्रतिष्ठा बनाई। उसके मुखपृष्ठ का लाल रंग उनके वामपन्थी विचारों को स्पष्ट दर्शाता था। उनका विश्व के तत्कालीन सब बड़े नेताओं से सम्पर्क था। वे उनसे सीधा संवाद कर उसे अपने पत्र ब्लिट्जमें छापते थेे। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े व्यक्ति से मिलने में वे कभी संकोच नहीं करते थे। ब्लिट्ज के मालिक होने के बाद भी वे द्वितीय विश्व युद्ध के समाचार संकलन के लिए स्वयं असम एवं बर्मा गये। इन्हीं गुणों के कारण वे लगभग 50 साल तक समाचार जगत में छाये रहे।

श्री करंजिया के जीवन के उत्तरार्ध में एक भारी मोड़ आया। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा के कट्टर विरोधी थे। इन्दिरा गांधी ने उन्हें विदेश विभाग से सम्बद्ध कर चीन से सम्बन्ध सुधारने के काम में लगाया। इसके लिए उन्होंने कई बार चीन का प्रवास किया। जब आपात्काल के बाद दिल्ली में मोरारजी भाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी, तो श्री करंजिया अपना त्यागपत्र लेकर तत्कालीन विदेश मन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के पास पहुँचे। अटल जी ने कहा कि आपका काम देशहित में ही था। अतः अपना काम करते रहें, त्यागपत्र देने की आवश्यकता नहीं है।

अटल जी की इस बात ने उनका जीवन बदल दिया। उन्होंने अटल जी की न जाने कितनी बार घटिया आलोचना की थी; पर संघ परिवार के इस व्यक्ति का मन इतना उदार होगा, ऐसी उन्हें कल्पना नहीं थी। उन्हें अपनी वामपन्थी विचारधारा और जीवन लक्ष्य के बारे में फिर से सोचना पड़ा। उन्हें लगा कि जिस विचार से वह पिछले 60 साल से जुड़े थे, वह निरर्थक है। कुछ समय बाद ब्लिट्जभी बन्द हो गया। 1980 में उन्होंने द डेलीनामक दैनिक पत्र निकाला; पर वह अधिक नहीं चल पाया।

60 साल की अवस्था में वे भारतीय योग की ओर आकर्षित हुए और कठिन योग, यहाँ तक कि कुंडलिनी साधने में भी सफल हुए। वे बिहार स्थित परमहन्स योगानन्द विद्यालय के अनुयायी बने और कुंडलिनी योग पर एक पुस्तक भी लिखी। एक समय वे संसद की अवमानना के दोषी ठहराये गये थे; पर बाद में वे राज्यसभा के सदस्य भी बने। वे अपने समाचार पत्र के लाभांश में से सब कर्मचारियों को हिस्सा देते थे तथा किसी कर्मचारी के असामयिक निधन होने पर उसके परिवार की हरसम्भव सहायता करते थे। इस प्रकार उन्होंने हर काम पूर्णता से करने का प्रयास किया।

95 वर्ष की दीर्घ अवस्था में एक फरवरी, 2008 को इस प्रखर, निर्भीक एवं सत्यान्वेषी पत्रकार का मुम्बई में ही देहान्त हुआ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें